सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

सामाजिक न्याय की राजनीति ठहराव के बिन्दू पर आकर खड़ी हो गयी है - योगेन्द्र यादव

देश के जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव पिछले दिनों पटना में थे। एक कार्यक्रम के दौरान इनसे बातचीत करने का अवसर मिला। अपनी बेबाक, गंभीर और सटीक टिप्पणियों के लिए मशहूर श्री यादव ने देश की राजनीति, ओबीसी की दशा दिशा और वर्ष 2014 में देश में राजनीतिक संभावनाओं पर विस्तार से बात की। प्रस्तुत है बातचीत का महत्वपूर्ण हिस्सा-

नवल किशोर कुमार– पिछले 4-5 वर्षों में देश की राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव आया है। आंकड़े विकास की अलग कहानी कहते हैं, वही उनकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे हैं। आंकड़ों के विशेषज्ञ होने के नाते आप क्या कहेंगे?

योगेंद्र यादव – देखिए, आंकड़ों से मैंने अपने आपको बहुत दूर कर लिया है। रही बात देश की राजनीति में बदलाव की तो निश्चित तौर पर बदलाव हुआ। देश के लोग गुस्से में हैं। लेकिन यह सकारात्मक गुस्सा है। पहली बार देश का आम आदमी अपनी बात कहने लगा है। निश्चित तौर पर यह बदलाव आने वाले दिनों में रंग दिखलायेगा।

नवल किशोर कुमार – देश में सामाजिक न्याय की लड़ाई कुंद पड़ती जा रही है। आपके हिसाब से इसकी क्या वजहें हो सकती हैं?

योगेन्द्र यादव – सामाजिक न्याय की राजनीति एक ठहराव के बिन्दू पर आकर खड़ी हो गयी है। उसकी वजह यह है कि सामाजिक न्याय की राजनीति का जो पहला दौर था, वह एक तरह से चूक गया है। जो नेताओं के चेहरा बदलने का काम था वह पूरा हो चुका है। अगर सामाजिक न्याय की राजनीति का मतलब यह था कि एक जाति के नेताओं को हटाकर दूसरी जाति के नेताओं को बिठाया जाय तो वह काम मोटे तौर देश के अनेक राज्यों में हो चुका है। लेकिन उसका जो दूसरा गहरा पड़ाव था कि सामान्य लोगों के जीवन में बदलाव लाया जाय। जन्म के संयोग पर जो विसंगतियां हैं, उसे खत्म किया जाय। उस चुनौती को लेने के लिए पहले दौर की राजनीति तैयार नहीं है। फ़िर चाहे वह लालू प्रसाद यादव की राजनीति हो या करूणानिधि की राजनीति। जो अपने आपको सामाजिक न्याय की राजनीति का वाहक कहते हैं, वे लोग इस बुनियादी चुनौती के लिए तैयार नहीं हैं। साथ ही साथ वह राजनीति अपने आप में अंदरूनी ठहराव में भी पहूंच चुकी है। चूंकि पिछड़ों में ओबीसी के अंदर जो बड़ी जातियां थीं, थोड़ा अगड़ी जातियां थीं, थोड़ा सा दबंग जातियां थीं, उन्होंने ओबीसी के नाम पर बाकी सब चीजों पर कब्जा कर लिया। दलित समाज में जो उपरी तबका है उसने अन्य दलितों के अधिकारों पर कब्जा कर लिया है। आदिवासी समाज में भी पूर्वोत्तर के राज्यों में आदिवासी, इसाई आदिवासी और जो थोड़े से समुदाय हैं उसने कब्जा कर लिया है। मुस्लिम समाज में भी जो अति पिछड़ा समाज है उसे कुछ नहीं मिला। तो आज अगर सामाजिक न्याय की राजनीति होगी तो वह अति पिछड़े, पसमांदा और सबसे पिछड़े आदिवासी की राजनीति होगी। आज अगर सामाजिक न्याय की राजनीति होगी तो केवल चेहरा बदलने की राजनीति नहीं होगी। लोगों के जीवन बदलने की राजनीति होगी। इस राजनीति के लिए पुराने सामाजिक न्याय की राजनीति अभी तैयार नहीं है।

नवल किशोर कुमार – कल एक वामपंथी नेता ने विक्ल्प के तौर पर वामपंथ और समाजवादियों को एक मंच पर आने का आहवान किया है। आपकी नजर में यह कितना तर्कसंगत है?

योगेंद्र यादव – इसमें कोई शक नहीं कि देश में बदलाव की तमाम बड़ी ताकतों को एक साथ आना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि जिसे 20वीं सदी में समाजवाद कहा जाता था और जिसे 20वीं सदी में साम्यवाद कहा जाता था, जिसमें आगे कोई नक्सली था या जो आम्बेडकरवादी ताकतें थीं, इन सबको एक मंच पर आना होगा। लेकिन इन धाराओं के जो बड़े-बड़े दल बने हैं, वे आज इन्हीं धाराओं के बदलाव को लाने में असमर्थ हैं। तो मैं नहीं समझता कि जो देश में बड़ी कम्यूनिस्ट पार्टियां हैं या समाजवाद का नाम लेने वाली कुछ पार्टियां इस देश में जो हैं, वे बड़े बदलाव में सहायक हो सकती हैं। मेरे विचार से तो इस देश में समाजवाद लाने में जो बाधक पार्टियां हैं, वे वो पार्टियां हैं जो समाजवाद के नाम पर चल रही हैं। या सीपीआई-सीपीएम जैसी बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियां जो कम्युनिज्म के नाम पर चल रही हैं, वे कम्युनिज्म के सबसे बड़ी बाधक हैं। मैं समझता हूं कि इतिहास का जो प्रवाह है, बदलाव है, वो इन बड़ी पार्टियों को किनारे कर देगा। इनके किनारे होने के बाद समाजवाद, साम्यवाद, नारीवाद और आम्बेडकरवाद आदि विचारधाराओं की जो छोटी-छोटी शक्तियां हैं, वे बदलाव लाने में सक्षम होंगी।

नवल किशोर कुमार – साहित्य के क्षेत्र में बात करें तो एक राजनीतिक कोशिश वहां भी की जा रही है। मेन स्ट्रीम साहित्य और दलित साहित्य के तर्ज पर ओबीसी साहित्य की बात कही जा रही है। इसका कैसा भविष्य आप देख पाते हैं?

योगेंद्र यादव – साहित्य में मेरी बहुत गति नहीं है। और जरूरी नही है कि एक क्षेत्र के बारे में कुछ जानकारी रखने वाला व्यक्ति बाकी क्षेत्रों के बारे में भी साधिकार टिप्पणी करे। मैं बहुत कम जानता हूं। यह संभव है कि और यह जरूरी है कि समाज का जो साहित्य है, समाज में आप कहां से आते हैं, कहीं न कहीं उसे प्रतिबिंबित करता है। फ़णीश्वरनाथ रेणु का साहित्य, जो मेरा प्रिय साहित्य है वो किसी शहरी मध्यम वर्गीय जीवन जीने वाले व्यक्ति का साहित्य नहीं हो सकता था। वो वही से आया, जहां से वह उपजा था। तो इसलिए जरुर है कि साहित्य समाज में जो आपका अस्तित्व है या फ़िर समाज में जो समुदाय है उसे प्रतिबिंबित करेगा। लेकिन यह भी याद रखें कि साहित्य केवल कटघरा नहीं है। साहित्य पूरी दुनिया की आंख खोलता भी है। साहित्य में यह आकांक्षा रहनी चाहिए कि वह जहां भी पैदा हो, वह अनंत से जुड़ सके। वह पूरी दुनिया से जुड़ सके। जो साहित्य यह आकांक्षा छोड़ दे वह साहित्य नहीं हो सकता।

नवल किशोर कुमार – योगेंद्र जी, फ़िर से वापस राजनीति की ओर चलते हैं। आज देश के कई राज्यों में पिछड़े वर्गों के लोगों का शासक है। फ़िर भी देश का पिछड़ा वर्ग उपेक्षित क्यों महसूस करता है?

योगेंद्र यादव – ये जो पिछड़ा वर्ग नामक कैटेगरी बनी है। यह कोई हमारे समाज की बनाई हुई कैटेगरी नहीं है। ओबीसी शब्द शुद्ध रुप से सरकारी कागजों और कमीशनों की बनाई हुई कैटेगरी है। जिसे हम ओबीसी कहते हैं, उसमें कम से कम 4 अलग-अलग किस्म के समुदाय शामिल हैं। एक वो जो कृषक समुदाय है, सम्पन्न है और जो जमींदार किस्म के लोग हैं। ये जातियां सक्षम हैं। अनेक जगहों पर दबंग भी हैं। इनके पास देश के कई इलाकों में जमीन और साधन भी हैं। ये भी अपने-आपको ओबीसी कहलाते हैं। कर्नाटक के लिंगायत हों, महाराष्ट्र के मराठा हों, या कांबा हों आंध्रप्रदेश, या उत्तरप्रदेश और बिहार में यादव एवं कुर्मी या फ़िर हरियाणा के जाट हों, ये अधिकांश इस वर्ग में आते हैं। इसके बाद देश के तमाम सीमांत किसान, छोटे-छोटे किसान जो हैं, वे भी हैं इसमें। लेकिन पहली और दूसरी कोटि के लोगों की कोई तुलना नहीं हो सकती। तीसरी श्रेणी में वे जातियां आती हैं जो कि आर्टिजन यानी शिल्पकार या हाथ का काम करके बनाने वाले लोग हैं। चौथी वे जातियां जिसे समाज में सर्विस कास्ट की संज्ञा दी गयी है। जैसे नाई, धोबी एवं अन्य जातियां। और पांचवी श्रेणी में उन जातियों के लोग आते हैं जिनकी सामाजिक हैसियत भी लगभग एक जैसी ही हैं। लेकिन चूंकि ये ईसाई या फ़िर मुसलमान धर्म की जातियां हैं, इसलिए इन्हें दलित नहीं कहा जाता। ये पांच अलग-अलग किस्म के कैटेगरी हैं। इन सबको एक कैटेगरी में डाल देना और ओबीसी कहना राजनीति के साथ न्याय नहीं है। क्योंकि इनमें जमीन आसमान का अंतर है। इनमें इतना ही अंतर होता है जितना कि दलित और ब्राह्म्ण में होता है। इसलिए इनकी राजनीति को एक साथ लाने के लिए जिस किस्म की रचनात्मकता चाहिए, उसके लिए अभी इसकी राजनीति तैयार नहीं हुई है। क्योंकि राजनीति चंद ऊपरी जातियों के कब्जे में आ गयी है। जब तक ओबीसी की राजनीति को ऊपरी जातियों के चंगुल से छुड़ाया नहीं जायेगा या उसे अति पिछड़े के पास नहीं लाया जाएगा और ओबीसी की राजनीति को उनके दैनन्दिन अनुभवों से जोड़ा नहीं जाएगा तब तक ओबीसी की राजनीति आगे नहीं बढ सकती। और इस मायने में उत्तर भारत में ओबीसी राजनीति की स्थिति बहुत ही दयनीय है। दक्षिण भारत की ओबीसी राजनीति ने इन सबकों को सीखा है और इससे वहां के लोगों की जिंदगी में कुछ न कुछ बदलाव आया है। ये जो करूणानिधि हैं, वे अनेक्सर वन से आते हैं। दक्षिण भारत की ओबीसी राजनीति अति पिछड़े की राजनीति बनी। जबकि उत्तर भारत की ओबीसी राजनीति में कम दृष्टि रखने वाले लोग आये। जिसके चलते बहुत बुनियादी राजनीति नहीं हो पायी।

नवल किशोर कुमार – योगेंद्र जी आखिरी सवाल। वर्ष 2014 में कैसा परिवर्तन देख रहे हैं आप?

योगेंद्र यादव – निर्भर करता है कि परिवर्तन से आपका आशय क्या है। अगर परिवर्तन का मतलब यह कि जो पार्टी सत्ता में है उसके बुरे दिन आयेंगे तो ये बताने के लिए आपको किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं है। आप आंख घुमाकर देख लिजिए। देश में चारों तरफ़ कांग्रेस की हालत त्रस्त है। चारों तरफ़ हार रहे हैं। बंगाल में प्रणव मुखर्जी के बेटे बमुश्किल से जीत पाते हैं। वही उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के बेटे चुनाव हार गये। यह सब संकेत है। जाहिर है देश में कांग्रेस की हालत पस्त है। इसमें कोई नई बात नहीं है। जो नई बात है वह यह कि मुख्य विपक्षी दल की हालत भी उतनी ही खराब है या फ़िर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि उससे भी ज्यादा खराब है। और यह देश में अलग परिस्थिति पैदा करती है जहां सत्तारुढ दल डूब रहा है। विपक्षी स्थिति लेने की स्थिति में नहीं हैं। इस प्रकार देश में एक नई राजनीतिक संभावना पैदा होती है। अभी से इस संभावना के बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।

(नवल किशोर कुमार अपनाबिहार.आर्ग के संपादक हैं)
साभार : विस्फोट. काम 

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