बुधवार, 31 अगस्त 2011

यदुकुल से राज्यपाल बनने वाले तीसरे व्यक्ति : रामनरेश यादव

यदुकुल से अभी तक नौ मुख्यमंत्री बन चुके हैं, पर राज्यपाल बनने का मौका सिर्फ़ तीन व्यक्तियों को मिला है. यादव राज्यपालों में गुजरात में महिपाल शास्त्री (2 मई 1990- 21 दिसंबर 1990) एवं हिमाचल प्रदेश व राजस्थान में बलिराम भगत (क्रमशः 11 फरवरी 1993-29 जून 1993 व 20 जून 1993-1 मई 1998) रहे हैं. हाल ही में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रहे 83 वर्षीय रामनरेश यादव को मध्य प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है। यदुकुल से राज्यपाल बनने वाले वह तीसरे व्यक्ति हैं.

आजमगढ़ के गांव आंधीपुर (अम्बारी) में एक साधारण किसान परिवार में 1 जुलाई 1928 को जन्मे रामनरेश यादव एक शिक्षक और एक अधिवक्ता के रूप में सामाजिक रूप से प्रगति करते हुए आगे चलकर एक ईमानदार और मूल्यों की राजनीति करने वाले आम आदमी के मददगार और एक दिग्गज राजनीतिज्ञ कहलाए। पेशे से वकील श्री यादव राजनारायण के विचारों से प्रभावित हो जनता पार्टी से जुड़े। 1977 में आजमगढ़ लोकसभा सीट से जीतकर वे छठवीं लोकसभा के सदस्य बने।इसी दरमियाँ वह 23 जून 1977 को उप्र के मुख्यमंत्री बने और इस पद पर 28 जून 1979 तक रहे। बाद में श्री यादव कांग्रेस पार्टी से जुड़े और संगठन में विभिन्न पदों पर भी रहे। सही मायनों में उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का कोई मुकाबला नही है उत्तर प्रदेश की राजनीति में दिग्गजों के बीच एक दिग्गज राजनीतिज्ञ का खिताब आज भी उनके पास है, बस फर्क इतना है कि आज के कई बड़े कहलाए जा रहे राजनेता माफियाओं, गुंडों और बदमाशों के नेता/सरगना कहे जाते हैं और रामनरेश यादव एक आम आदमी के और मूल्यों आधारित राजनीति के साथ चलने वाले नेता माने जाते हैं। भीड़ एवं सुरक्षा कर्मियों के घेरे में चौबीस घंटे रहने की महत्वकांक्षा उन पर कभी भी भारी नहीं पड़ सकी। जो लोग रामनरेश यादव के सामाजिक और राजनीतिक जीवन से परिचित हैं वे इन लाइनों से जरूर सहमत होंगे। उद्योगपतियों की तरह अरबपति या खरबपति राजनेता बनने की होड़ में शामिल राजनेताओं से यदि रामनरेश यादव की तुलना की जाए तो सभी जानते हैं कि उन्होंने अकूत दौलत को छोड़कर नैतिक मूल्यों को अपनी पूंजी बनाया है वे अन्य नेताओं की तरह धनसंपदा के पीछे नही भागे, यही कारण है कि अपने राजनीतिक जीवन में वे कई बार उपेक्षा के शिकार भी हुए हैं। कहने वाले कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास जो कद्दावर नेता हैं या जिन्हें वज़नदार नेता कहा जाता है उनमें रामनरेश यादव का पड़ला काफी भारी है।

रामनरेश यादव का समाजवादी आंदोलन और भारतीय राजनीति में हमेशा विशिष्ट स्थान रहा है। उन्होंने दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और गरीबों के दुख-दर्द को बहुत करीब और गहराई से समझा है, डॉ लोहिया की विचारधारा से प्रेरित होने के नाते उनमें किसी के लिए तनिक भी भेदभाव नहीं दिखाई देता है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी से निकले रामनरेश यादव प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक एवं विचारक आचार्य नरेंद्र देव के प्रभाव में रहे हैं। पंडित मदनमोहन मालवीय और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के भारतीय दर्शन से उनका सामाजिक जीवन काफी प्रभावित है।

फ़िलहाल देर से ही सही, राम नरेश यादव जी की योग्यता के मद्देनजर उन्हें मध्य प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य का राज्यपाल बनाया जाना एक सुखद संकेत है . यदुकुल की तरफ से इस उपलब्धि पर हार्दिक बधाइयाँ !!

सोमवार, 22 अगस्त 2011

श्री कृष्ण-जन्माष्टमी की बधाइयाँ



यदुवंशियों के पूर्वज भगवान श्री कृष्ण माने जाते हैं। सोलह कलाओं में माहिर भगवान श्री कृष्ण का आज जन्म-दिन है और सारा देश धूम-धाम से कृष्ण-जन्माष्टमी मना रहा है. भगवान श्री कृष्ण का पूरा जीवन ही मानवता को सन्देश देता है, प्रेरणा देता है. इस पर्व पर भगवान श्री कृष्ण का पुनीत स्मरण करते हुए समस्त धरावासियों के लिए सुख-समृधी-आरोग्य की कामना है. इस अनुपम पर्व कृष्ण-जन्माष्टमी पर आप सभी को शुभकामनायें और बधाइयाँ. भगवान श्री कृष्ण आपकी सभी मनोकामनाओं को पूरी करें !!

रविवार, 21 अगस्त 2011

सोलह कलाओं के अवतार :भगवान श्री कृष्ण

यद्‌यपि प्रत्‍येक पुराण में अनेक देवी देवताओं का वर्णन हुआ है तथा प्रत्‍येक पुराण में अनेक विषयों का समाहार है तथापि शिव पुराण, भविष्‍य पुराण, मार्कण्‍डेय पुराण, लिंग पुराण, वाराह पुराण, स्‍कन्‍द पुराण, कूर्म पुराण, वामन पुराण, ब्रह्माण्‍ड पुराण एवं मत्‍स्‍य पुराण आदि में ‘शिव' को; विष्‍णु पुराण, नारदीय पुराण, गरुड़ पुराण एवं भागवत पुराण आदि में ‘विष्‍णु' को; ब्रह्म पुराण एवं पद्‌म पुराण में ‘ब्रह्मा' को तथा ब्रह्म वैवर्त पुराण में ‘सूर्य' को अन्‍य देवताओं का स्रष्‍टा माना गया है।


पुराणों के गहन अध्‍ययन से स्‍पष्‍ट होता है कि पहले शिव की उपासना का विशेष महत्‍व था किन्‍तु तद्‌नन्‍तर विष्‍णु की भक्‍ति एवं उपासना का विकास एवं महत्‍व उत्‍तरोत्‍तर बढ़़ता गया। वासुदेव, नारायण, राम एवं कृष्‍ण आदि विष्‍णु के ही अवतार स्‍वीकार किए गए। 14 वीं शताब्‍दी तक आते आते राम एवं कृष्‍ण ही इष्‍टदेवों में सर्वाधिक मान्‍य एवं प्रतिष्‍ठित हो गए। अलग अलग कालखंडों में विष्‍णु, नारायण, वासुदेव, दामोदर, केशव, गोविन्‍द, हरि, सात्‍वत एवं कृष्‍ण एक ही शक्‍ति के वाचक भिन्‍न नामों के रूप में मान्‍य हुए। महाभारत के शान्‍ति पर्व में वर्णित है -

‘‘ मैं रुद्र नारायण स्‍वरूप ही हूँ। अखिल विश्‍व का आत्‍मा मैं हूँ और मेरा आत्‍मा रुद्र है। मैं पहले रुद्र की पूजा करता हूँ। आप अर्थात्‌ शरीर को ही नारा कहते हैं। सब प्राणियों का शरीर मेरा ‘अयन' अर्थात्‌ निवास स्‍थान है, इसलिए मुझे ‘नारायण' कहते हैं। सारा विश्‍व मुझमें स्‍थित है, इसी से मुझे ‘वासुदेव' कहते हैं। सारे विश्‍व को मैं व्‍याप लेता हूँ, इस कारण मुझे ‘विष्‍णु' कहते हैं। पृथ्‍वी, स्‍वर्ग एवं अंतरिक्ष सबकी चेतना का अन्‍तर्भाग मैं ही हूँ, इस कारण मुझे ‘दामोदर' कहते हैं। मेरे बाल सूर्य, चन्‍द्र एवं अग्‍नि की किरणें हैं, इस कारण मुझे ‘केशव' कहते हैं। गो अर्थात्‌ पृथ्‍वी को मैं ऊपर ले गया इसी से मुझे ‘गोविन्‍द' कहते हैं। यज्ञ का हविर्भाग मैं हरण करता हूँ, इस कारण मुझे ‘ हरि' कहते हैं। सत्‍वगुणी होने के कारण मुझे ‘सात्‍वत' कहते हैं। लोहे का काला फाल होकर मैं जमीन जोतता हूँ और मेरा रंग काला है, इस कारण मुझे ‘कृष्‍ण' कहते हैं। ''

भगवान कृष्‍ण के अनेकानेक रूप हैं। उनको सोलह कलाओं का अवतार माना जाता है। श्री कृष्‍ण के अतन्‍त प्रकार के रूप हैं। जो रूप सर्वातीत, अव्‍यक्‍त, निरंजन, नित्‍य आनन्‍दमय है उसका वर्णन करना सम्‍भव ही नहीं है क्‍योंकि अनन्‍त सौन्‍दर्य के चैतन्‍यमय आधार को भाषा में व्‍यक्‍त नहीं किया जा सकता। महाभारत, शास्‍त्रों एवं पुराणों में जो वर्णित है उस दृष्‍टि से श्री कृष्‍ण के तीन रूप प्रमुख हैं -

1 ़ महाभारत के कृष्‍ण
2 ़ गीता के कृष्‍ण
3 ़ भागवत तथा उसके आधार पर काव्‍य में वर्णित कृष्‍ण

महाभारत के कृष्‍ण
महाभारत में ‘नारद प्रसंग' में श्री कृष्‍ण के विश्‍व रूप का वर्णन मिलता है किन्‍तु यहाँ प्रधानता कृष्‍ण के मानवीय रूप की ही है। महाभारत में कृष्‍ण के कुशल राजनीति वेत्‍ता, कूटनीति विशारद एवं वीरत्‍व विधायक स्‍वरूप का निदर्शन है।

गीता के कृष्‍ण
गीता में श्री कृष्‍ण के विश्‍व व्‍यापी स्‍वरूप एवं परब्रह्म स्‍वरूप का प्रतिपादन है। श्री कृष्‍ण स्‍वयं अपना विश्‍व रूप अर्जुन को दिखाते हैं। गीता में श्री कृष्‍ण को प्रकृति और पुरुष से परे एक सर्व व्‍यापक, अव्‍यक्‍त एवं अमृत तत्‍व माना गया है और उसे परम पुरुष की संज्ञा से अभिहित किया गया है।

भागवत तथा उसके आधार पर काव्‍य में वर्णित कृष्‍ण
भागवत में यद्‌यपि अनेक अवतारों का वर्णन है किन्‍तु प्रधानता की दृष्‍टि से कृष्‍ण को पूर्ण ब्रह्म मानकर कृष्‍ण भक्‍ति की श्रेष्‍ठता प्रतिपादित है। भागवत में यद्‌यपि कृष्‍ण के 1 ़ असुर संहारक 2 ़ राजनीति वेत्‍ता एवं कूटनीति विशारद 3 ़ योगेश्‍वर 4 ़ परब्रह्म स्‍वरूप 5 ़ बालकृष्‍ण 6 ़ गोपी विहारी आदि सभी रूपों का वर्णन एवं विवेचन हुआ है किन्‍तु प्रधान रूप से कृष्‍ण के रसिकेश्‍वर स्‍वरूप की सरस अभिव्‍यंजना है। भागवत के पारायण से प्रेमाभिभूत भक्‍तों को गोकुल, ब्रज एवं वृन्‍दावन में विहार करने वाले नन्‍द नन्‍दन रसिक शिरोमणि गोपाल कृष्‍ण की लीलाओं से सहज रूप से परमानन्‍द की प्राप्‍ति होती है।

श्रीमद्‌भागवतकार जहाँ अलौकिकता एवं भक्‍ति से पुष्‍ट परमानन्‍द के रस से निमज्‍जित करता है वहीं परवर्ती आचार्यों एवं साहित्‍यकारों ने गोपीवल्‍लभ एवं राधावल्‍लभ कृष्‍ण के प्रेम की शास्‍त्रीय मीमांसा एवं काव्‍यात्‍मक अभिव्‍यंजना की है। सूरदास जैसे कवियों ने यशोदा माता के वात्‍सल्‍य का सहज एवं सरस चित्रांकन भी किया है।

रामानुजाचार्य ने भक्‍ति को नारायण, लक्ष्‍मी, भू और लीला तक ही सीमित रखा। निम्‍बार्काचार्य ने दक्षिण भारत से वृन्‍दावन में आकर उत्‍तर भारत में कृष्‍ण और सखियों द्वारा परिवेष्‍ठित राधा को महत्‍व दिया। निम्‍बार्क की भक्‍ति परम्‍परा में तथा विष्‍णु स्‍वामी से प्रभावित होकर उत्‍तर भारत में राधा कृष्‍ण की भक्‍ति का प्रचार प्रसार करने वाले आचार्यों में सर्वाधिक महत्‍व वल्‍लभाचार्य एवं चैतन्‍य महाप्रभु का है।

वल्‍लभाचार्य ने अपनी भक्‍ति में ‘प्रपत्‍ति'/‘शरणागति' को विशेष स्‍थान दिया। आपने गोपाल कृष्‍ण की लीलाओं को अलौकिकता प्रदान की। आपकी स्‍थापना है कि लीला पुरुषोत्‍तम श्रीकृष्‍ण राधिका के साथ जिस लोक में विहार करते हैं वह विष्‍णु और नारायण के बैकुंठ से भी ऊँचा है। इस स्‍थापना के कारण इन्‍होंने ‘गोलोक' को बैकुंठ से भी अधिक महत्‍व प्रदान किया।

चैतन्‍य महाप्रभु ने श्रीकृष्‍ण संकीर्तन के महत्‍व का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार यह चित्‍तरूपी दर्पण के मैल को मार्जित करता है, संसाररूपी महादावग्‍नि को शान्‍त करता है, प्राणियों को मंगलदायिनी कैरव चंद्रिका वितरित करता है। यह विद्‌यारूपी वधू का जीवन स्‍वरूप है। यह आनन्‍दस्‍वरूप को प्रतिदिन बढ़ाता है।

जयदेव, विद्‌यापति, चंडीदास एवं सूरदास जैसे अष्‍टछाप के कवियों ने गोपियों के कृष्‍णानुराग एवं ‘युगल उपासना' से प्रेरित राधा कृष्‍ण के उस प्रेम की सहज भावाभिव्‍यंजना की है जहाँ राधा श्‍याम के रंग में रंग जाती हैं तथा श्‍याम राधा के रंग में रंग जाते हैं।

कुछ विद्वानों नें श्रीमद्‌भागवत तथा उससे प्रेरित काव्‍य ग्रन्‍थों में वर्णित गोपियों के कृष्‍णानुराग एवं ‘युगल उपासना' से प्रेरित राधा कृष्‍ण के प्रेम प्रसंगों को भगवान श्रीकृष्‍ण के चरित पर लगाए गए असत्‍य, निर्मूल एवं निराधार लांछन माना है।

भक्‍ति परम्‍परा के परिप्रेक्ष्‍य में लीला प्रसंगों के आध्‍यात्‍मिक निहितार्थ हैं। लोक में जो जितना अश्‍लील एवं गर्हित है वह गोलोक में उतना ही पावन एवं मंगलकारी है। प्रत्‍येक लीला के आध्‍यात्‍मिक अर्थों की गहन एवं विशद व्‍याख्‍याएँ सुलभ हैं। उनकी पुनुरुक्‍ति की कोई प्रयोजनसिद्‌धता नहीं है। सम्‍प्रति हम केवल यह संकेत करना चाहते हैं कि लोक की दृष्‍टि से लोक में परकीया प्रेम गर्हित एवं अपराध है किन्‍तु भक्‍ति में गोपियाँ कुल मर्यादा का अतिक्रमण कर कामरूपा प्रीति करती हैं। लोक में जो श्रृंगार प्रेम है भक्‍ति में वह मधुर भक्‍ति रस है, माधुर्य भाव की भक्‍ति है। लौकिक प्रेम के जितने स्‍वरूप हो सकते हैं, वे सभी मधुर भक्‍ति में आ जाते हैं। कृष्‍ण में लीन होने के कारण गोपियों की कामरूपा प्रीति भी निष्‍काम है तथा सोलह हज़ार गोपियों के साथ ‘रास' रचाने वाले कृष्‍ण तत्‍वतः ‘योगेश्‍वर' है।

प्रेम के इस धरातल पर दैहिक सीमा से उद्‌भूत प्रेम उन सीमाओं का अतिक्रमण कर चेतना के स्‍तर पर प्रतिष्‍ठित हो जाता है। कृष्‍ण लीलाओं में प्रेम के जिस उन्‍मुक्‍त स्‍वरूप की यमुना तट और वृन्‍दावन के करील कुंजों में रासलीलाओं की धवल चॉदनी छिटकी है उसे आत्‍मसात करने के लिए भारत की तंत्र साधना को समझना होगा। ‘ हिन्‍दी निर्गुण भक्‍ति काव्‍य परम्‍परा' शीर्षक आलेख में लेखक ने विस्‍तार के साथ प्रतिपादित किया है कि भक्‍ति काल के साहित्‍य की रस-साधना में जो भक्‍ति है वह तत्‍वतः आत्‍मस्‍वरूपा शक्‍ति ही है। भक्‍ति की उपासना वास्‍तव में आत्‍मस्‍वरूपा शक्‍ति की ही उपासना है। सभी संतो का लक्ष्‍य भाव से प्रेम की ओर अग्रसर होना है। प्रेम का आविर्भाव होने पर ‘भाव' शांत हो जाता है। भक्‍त महाप्रेम में अपने स्‍वरूप में प्रतिष्‍ठित हो जाता है।

उदाहरण के लिए कबीर ने जीवन की साधना के बल पर जाना था कि ‘ मानस' यदि विकारों से मुक्‍त होकर ‘निर्मल' हो जाता है तो उसमें ‘अलख निरंजन' का प्रतिबिंब अनायास प्रतिफलित हो जाता है। ‘ प्‍यंजर प्रेम प्रकासिया, अन्‍तरि भया उजास'। हम यह कहने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहे हैं कि सूफियों ने भी भाव के केन्‍द्र को भौतिक न मानकर चिन्‍मय रूप में स्‍वीकार किया है तथा कृष्‍ण भक्‍तों की भाव साधना में भी भाव ही ‘महाभाव' में रूपान्‍तरित हो जाता है। कृष्‍ण भक्‍त कवियों के काव्‍य में भी राधा-भाव आत्‍म-शक्‍ति के अतिरिक्‍त अन्‍य नहीं है। अभी तक भक्‍ति काव्‍य को शंकराचार्य के अद्वैतवाद एवं वैष्‍णव मतवाद के आलोक में ही समझने का प्रयास होता रहा है। हमारी मान्‍यता है कि भक्‍ति काव्‍य को शांकर अद्वैतवाद के परिप्रेक्ष्‍य में मीमांसित करना उपयुक्‍त नहीं हैं।शांकर अद्वैतवाद में भक्‍ति को साधन के रूप में स्‍वीकार किया गया है, किन्‍तु उसे साध्‍य नहीं माना गया है। भक्‍तों ने भक्‍ति को साध्‍य माना है।

शांकर अद्वैतवाद में मुक्‍ति के प्रत्‍यक्ष साधन के रूप में ‘ज्ञान' को ग्रहण किया गया है। वहाँ मुक्‍ति के लिए भक्‍ति का ग्रहण अपरिहार्य नहीं है। वहाँ भक्‍ति के महत्‍व की सीमा प्रतिपादित है। वहाँ भक्‍ति का महत्‍व केवल इस दृष्‍टि से है कि वह अन्‍तःकरण के मालिन्‍य का प्रक्षालन करने में समर्थ सिद्ध होती है। भक्‍ति आत्‍म-साक्षात्‍कार नहीं करा सकती, वह केवल आत्‍म साक्षात्‍कार के लिए उचित भूमिका का निर्माण कर सकती है। भक्‍तों ने अपना चरम लक्ष्‍य भगवद्‌-दर्शन /प्रेम भक्‍ति माना है तथा भक्‍ति के ग्रहण को अपरिहार्य रूप में स्‍वीकार किया है। भक्‍तों की दृष्‍टि में भक्‍ति केवल अन्‍तःकरण के मालिन्‍य का प्रक्षालन करने वाली ‘वृत्‍ति' न होकर ‘आत्‍म शक्‍ति' ही है।

शांकर अद्वैतवाद में अद्वैत-ज्ञान की उपलब्‍धि के अनन्‍तर ‘भक्‍ति' की सत्‍ता अनावश्‍यक ही नहीं अपितु असम्‍भव है। भक्‍तों में अद्वैतज्ञान के बाद भी ‘ज्ञानोत्‍तरा भक्‍ति' की स्‍थिति है। इसका कारण हम बता चुके है कि भक्‍ति काल के साहित्‍य की रस-साधना में जो भक्‍ति है वह तत्‍वतः आत्‍मस्‍वरूपा शक्‍ति ही है। अंत में, मैं इस सम्‍बन्‍ध में यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि श्री कृष्‍ण के इन लीला प्रसंगों को इतिहास के प्रतिमानों के आधार पर नहीं परखा जा सकता। यह इतिहास का नहीं अपितु भक्‍ति का विषय है। इसी के साथ मैं यह भी जोर देकर कहना चाहता हूँ कि इसे मानवीय प्रेम की दृष्‍टि से भी जाँचा जा सकता है।

रसिक शिरोमणि गोपाल कृष्‍ण की लीलाओं से प्रेमासक्‍त भक्‍तों को जहाँ सहज परमानन्‍द प्राप्‍त होता है वहीं सहृदय पाठक को इनके पारायण से उमंग एवं उल्‍लास की प्रतीति होती है। श्री कृष्‍ण के इन लीला प्रसंगों में मानवीय प्रेम भी अपने सहज रूप में अभिव्‍यक्‍त है - इस बोध के साथ कि प्रेम में पुरुष और नारी के बीच विभाजक रेखायें खींचना अतार्किक एवं बेमानी हैं। इसी भारत में श्री कृष्‍ण के इन लीला प्रसंगों की काव्‍य रचना के पूर्व मिथुन युग्‍मों का शिल्‍पांकन न केवल खजुराहो अपितु कोणार्क, भुवनेश्‍वर एवं पुरी आदि अनेक देव मन्‍दिरों में हो चुका था। दाम्‍पत्‍य जीवन की युगल रूप में मैथुनी लौकिक चेष्‍टाओं एवं भावाद्रेकों को शरीर के सहज एवं अनिवार्य धर्म के रूप में स्‍वीकृति एवं मान्‍यता प्राप्‍त हो चुकी थी।

भारतीय तंत्र साधना की चरम परिणति एवं उत्‍कर्ष के काल में साधक सम्‍पूर्ण सृष्‍टि की आनन्‍दमयी विश्‍व वासना से प्रेरित, संवेदित एवं उल्‍लसित रूप में प्रतीति एवं अनुभूति कर चुका था । यह वह काल था जिसमें ‘ काम ' को हेय दृष्‍टि से नहीं देखा जाता था अपितु इसे जीवन के लिए उपादेय एवं श्रेयस्‍कर माना जाता था। समर्पण भाव से अभिभूत एकीभूत आलिंगन के फलीभूत पृथकता के द्वैत भाव को मेटकर तन - मन की एकचित्‍तता, मग्‍नता एवं एकात्‍मता में अस्‍तित्‍व के हेतु भोग से प्राप्‍त ‘ कामानन्‍द ' की स्‍थितियों को पाषाण खंडों में उत्‍कीर्ण करने वाले नर - नारी युग्‍मों के कलात्‍मक शिल्‍प वैभव को चरम मानसिक आनन्‍द प्राप्‍त करने का हेतु माना गया था। इस काल में इसी कारण इन्‍द्रिय दमन, ब्रह्मचर्य, नारी के प्रति तिरस्‍कार की भावना आदि बातें करना बेमानी थीं।

इस पृष्‍ठभूमि में श्री कृष्‍ण के लीला प्रसंगों को समझने का प्रयास होना चाहिए। इन लीलाओं का जीवन दर्शन यह है कि जीवन जीने के लिए है, पलायन करने के लिए नहीं है। वैराग्‍य भावना से जंगल में जाकर तपस्‍या तो की जा सकती है किन्‍तु उत्‍साह, उछाह, उमंग, उल्‍लास, कर्मण्‍यता, जीवंतता, प्रेरणा, रागात्‍मकता एवं सक्रियता के साथ गृहस्‍थ जीवन नहीं जिया जा सकता। गार्हस्‍थ जीवन का विधान है जिसमें पुरुष एवं स्‍त्री के बीच प्रजनन के उद्‌देश्‍य से मर्यादित काम का प्रेम में पर्यवसान होता है।

प्रेम प्रसंगों के गति पथ की सीमा शरीर पर आकर रुक नहीं जाती, शरीर के धरातल पर ही निःशेष नहीं हो जाती अपितु प्रेममूलक एर्न्‍द्रिय संवेगों की भावों में परिणति और भावों का विचारों में पर्यवसान तथा विचारों एवं प्रत्‍ययों का पुनः भावों एवं संवेगों में रूपान्‍तरण - यह चक्र चलता रहता है। काम ऐन्‍द्रिय सीमाओं से ऊपर उठकर अतीन्‍द्रिय उन्‍नयन की ओर उन्‍मुख होता है। प्रेम शरीर में जन्‍म लेता है लेकिन वह ऊर्ध्‍व गति धारण कर प्रेमी प्रेमिका के मन के आकाश की ओर उड्‌डीयमान होता है। इस पृष्‍ठभूमि में जब हम श्रीमद्‌भागवत तथा इससे अनुप्राणित परवर्ती कृष्‍ण काव्‍य का अनुशीलन करते हैं तो पाते हैं कि यह ऐसी जीवन धारा है जिसमें मानवीय प्रेम अपनी सम्‍पूर्णता में बिना किसी लाग लपेट के सहज भाव से अवगाहन करता है। प्रेम की इस सहज राग साधना में गृहस्‍थ जीवन एवं सांसारिक जीवन पूरे उल्‍लास के प्रमुदित होता है।

प्रोफेसर महावीर सरन जैन, सेवानिवृत्‍त निदेशक, केन्‍द्रीय हिन्‍दी संस्‍थान,
123- हरिएन्‍कलेव, चांदपुर रोड, बुलन्‍दशहर


साभार : रचनाकार

शनिवार, 13 अगस्त 2011

वृक्षों को रक्षा-सूत्र बाँधकर रक्षाबंधन मनाती : सुनीति यादव

आज रक्षाबंधन का पर्व है. यह सिर्फ भाई -बहन से जुड़ा नहीं बल्कि मानवता की रक्षा से भी जुड़ा हुआ है. हममें से तमाम लोग अपने स्तर पर मानवता को बचने हेतु पर्यावरण संरक्षण में जुटे हुए हैं। इन्हीं में से एक हैं- जीवन के समानांतर ही जल, जमीन और जंगल को देखने वाली ग्रीन गार्जियन सोसाइटी की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर सुनीति यादव। पिछले कई वर्षों से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कार्य कर रही एवं छत्तीसगढ़ में एक वन अधिकारी के0एस0 यादव की पत्नी सुनीति यादव सार्थक पहल करते हुए वृक्षों को राखी बाँधकर वृक्ष रक्षा-सूत्र कार्यक्रम का सफल संचालन कर नाम रोशन कर रही हैं। इस सराहनीय कार्य के लिए उन्हें ‘महाराणा उदय सिंह पर्यावरण पुरस्कार, स्त्री शक्ति पुरस्कार 2002, जी अस्तित्व अवार्ड इत्यादि पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। सुनीति यादव द्वारा वृक्ष रक्षा-सूत्र कार्यक्रम चलाये जाने के पीछे एक रोचक वाकया है। वर्ष 1992 में उनके पति जशपुर में डी0एफ0ओ0 थे। वहां प्राइवेट जमीन में पांच बहुत ही सुन्दर वृक्ष थे, जिन्हें भूस्वामी काटकर वहां दुकान बनाना चाहता था। उसने इन पेड़ों को काटने के लिए जिलाधिकारी को आवेदन कर रखा था। अपने पति द्वारा जब यह बात सुनीति यादव को पता चली तो उनके दिमाग में एक विचार कौंध गया। राखी पर्व पर कुछ महिलाओं के साथ जाकर उन्होंने उन पांच वृक्षों की विधिवत पूजा की और रक्षा सूत्र बांध दिया। देखा-देखी शाम तक आस-पास के लोगों द्वारा उन वृक्षों पर ढेर सारी राखियां बंध गई। फिर भूस्वामी को इन वृक्षों का काटने का इरादा ही छोड़ना पड़ा और गांव वाले इन पेड़ों को पांच भाई के रूप में मानने लगे। इससे उत्साहित होकर सुनीति यादव ने हर गांव में एक या दो विशिष्ट वृक्षों का चयन कराया तथा वर्ष 1993 में राखी के पर्व पर 17000 से अधिक लोगों ने 1340 वृक्षों को राखी बांधकर वनों की सुरक्षा का संकल्प लिया और इस प्रकार वृक्ष रक्षा सूत्र कार्यक्रम चल निकला। बस्तर के कोंडागांव इलाके में वृक्ष रक्षा सूत्र अभियान के तहत एक वृक्ष को नौ मीटर की राखी बांधी गई।

याद कीजिए 70 के दशक का चिपको आन्दोलन। सुनीति का मानना है कि चिपको आन्दोलन वन विभाग की नीतियों के विरूद्ध चलाया गया था जबकि वृक्ष रक्षा सूत्र वन विभाग एवं जनता का सामूहिक अभियान है, जिसे समाज के हर वर्ग का समर्थन प्राप्त है। यह सुनीति यादव की प्रतिबद्वता ही है कि वृक्ष रक्षा सूत्र कार्यक्रम अब देश के नौ राज्यों तक फैल चुका है। सुनीति इसे और भी व्यापक आयाम देते हुए ‘‘पौध प्रसाद कार्यक्रम‘‘ से जोड़ रही हैं। इसके लिए वे देश के सभी छोटे-बड़े धार्मिक प्रतिष्ठानों से सम्पर्क कर रही हैं कि वे भक्तों को प्रसाद के रूप में पौधे बांटे, ताकि वे उन पौधों को श्रद्धा के साथ लगायें, पालें-पोसें और बड़ा करें। यही नहीं आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण वृक्ष प्रजातियों, वनौषधियों के बीज पैकेट भी प्रसाद के रूप में बांटे जा रहे हैं। सुनीति यादव का मानना है कि वृक्ष भगवान के ही दूसरे रूप हैं। जब वह कहती हैं कि भगवान शिव की तरह वृक्ष सारा विषमयी कार्बन डाई आक्साइड पी जाते हैं और बदले में जीवन के लिए जरूरी आक्सीजन देते हैं, तो लोग दंग रह जाते हैं। सुनीति यादव का स्पष्ट मानना है कि-‘‘ईश्वर ने हम सभी को पृथ्वी पर किसी न किसी उद्देश्य के लिए भेजा है। आइए, उसके सपनों को साकार करें। धरती पर हरियाली को सुरक्षित रखकर हम जिन्दगी को और भी खूबसूरत बनाएंगे, कच्चे धागों से हरितिमा को बचाएंगे। ताज और मीनार हमारे किस काम के, जब पृथ्वी की धड़कन ही न बच सके। कल आने वाली पीढ़ी को हम क्या सौगात दे सकेंगे? आइए, रक्षाबंधन के इस पर्व पर हम भी ढेर सारे पौधे लगाएं और लगे हुए वृक्षों को रक्षा-सूत्र बंधकर उन्हें बचाएं।‘‘

आप सभी को रक्षा-बंधन पर्व पर ढेरों शुभकामनायें !!

साभार : आकांक्षा यादव : शब्द-शिखर


शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

साहित्यकार और पत्रकार : रघुविन्द्र यादव

भारत-जगत में तमाम यदुवंशी देश के विभिन्न अंचलों से हिंदी-साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं. उनमें से एक नाम है- रघुविन्द्र यादव. वे 'बाबूजी का भारत मित्र' पत्रिका के संपादक भी हैं. उनके जीवन-परिचय के लिए देखें-






(बड़े रूप में अच्छे से पढने के लिए फोटो पर चटका लगायें.)

बुधवार, 10 अगस्त 2011

प्रशासन और साहित्य के ध्वजवाहक : कृष्ण कुमार यादव

एक समय ऐसा भी था जब सभी क्षेत्रों-वर्गों में साहित्यकारों-रचनाकारों की बड़ी संख्या होती थी। वर्तमान समाज में दूरदर्शनी संस्कृति के चलते पठन-पाठन से दूर मात्र येनकेन धनोपार्जन मुख्य उद्देश्य बन चुका है। रायबरेली के दौलतपुर ग्राम में जन्मे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी झाँसी में रेलवे विभाग में सेवारत होते हुए भी अनवरत् साहित्यिक लेखन करते रहे और अन्ततः हिन्दी साहित्य में ‘द्विवेदी युग‘ नाम से मील के पत्थर बने। साहित्य की ऐतिहासिक पत्रिका ‘सरस्वती‘ का सम्पादन उन्होंने कानपुर के जूही मोहल्ले में किया।

इसी संदर्भ में दो घटनाओं की चर्चा बिना यह बात अपूर्ण रहेगी। हिन्दी साहित्य के भीष्म पितामह तथा तमाम साहित्यकारों के निर्माता पद्मविभूषण पं0 श्री नारायण चतुर्वेदी ने लंदन में प्राचीन इतिहास से एम0ए0 किया। उनकी पहली कृति-'महात्मा टाल्सटाय' सन् 1917 में प्रकाशित हुई। इनके पिता पं0 द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी ने भी विदेशी शासन काल में राजकीय सेवा में रहते हुए गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा भारतीयों के साथ चालाकी से किये गये योजनापूर्वक षडयन्त्र का यथार्थ चित्रण करते हुए एक ग्रंथ लिखा। नतीजन, अंग्रेजी शासन ने बौखला कर उन्हें माफी माँगने पर बाध्य किया पर ऐसे समय में उन्होंने इस्तीफा देकर अपनी देशभक्ति का प्रमाण दिया। उनके सुपुत्र जीवनपर्यन्त शिक्षा विभाग, सूचना विभाग तथा उपनिदेशक आकाशवाणी के उच्च प्रशासनिक पदों पर रहते हुए अनेकों पुस्तकों की रचना के अलावा अवकाश ग्रहण पश्चात भी लगभग चार दशकों तक विभिन्न प्रकार से हिन्दी की सेवा एवं ‘सरस्वती‘ का सम्पादन आदि सक्रिय रूप से करते रहे। उन्होंने अपने सेवाकाल में हिन्दी के अनेक शलाका-पुरूष निर्माण किये जो साहित्य की विभिन्न विधाओं के प्रकाश स्तम्भ बने। इसी प्रकार उच्चतर प्रशासनिक सेवा आई0सी0एस0 (अब परिवर्तित होकर आई0ए0एस0) उत्तीर्ण करके उत्तर प्रदेश कैडर के अन्तिम अधिकारी डा0 जे0डी0 शुक्ल प्रदेश के अनेक शीर्षस्थ पदों पर सफल प्रशासनिक अधिकारी होते हुए भी हिन्दी तथा तुलसीदास के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे। उनके ऊपर लेख, अन्त्याक्षरी तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलनों में वे सक्रिय होकर भाग लेते रहे।

हिन्दी साहित्य के प्रति दीवानगी विदेशियों में भी रही है। इटली के डा0 लुइजि पियो तैस्सीतोरी ने लोरेंस विश्वविद्यालय से सन् 1911 में सर्वप्रथम ‘तुलसी रामायण और वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन‘ पर शोध करके हिन्दी में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। वे इटली की सेना में भी सेवारत रहे। तत्पश्चात भारत में जीवनपर्यन्त रहकर इस विदेशी शंकराचार्य ने अनेक कृतियाँ लिखीं जिसमें ‘शंकराचार्य और रामानुजाचार्य का तुलसी पर प्रभाव‘ ‘वैसवाड़ी व्याकरण का तुलसी पर प्रभाव‘ प्रमुख हैं। यहाँ रहकर वह हिन्दी में बोलते और पत्र-व्यवहार भी भारत में हिन्दी में ही करते थे। डा0 तैस्सीतोरी पुरातत्व के प्रति भी लगाव होने से राजस्थान में ऊँट की सवारी करके जानकारी अर्जित करते रहे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि हिन्दी का यह विदेशी निष्पृह सेवक मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में ‘बीकानेर‘ में स्वर्ग सिधार गया। उसकी समाधि बीकानेर में तथा विश्व में सर्वप्रथम इनकी प्रतिमा की स्थापना ‘तुलसी उपवन‘ मोतीझील, कानपुर में करने इटली के सांस्कृतिक दूत प्रो0 फरनान्दो बरतोलनी आये। उन्होंने प्रतिमा स्थापना के समय आश्चर्यमिश्रित शब्दों में कहा कि हमारे देश में भी नहीं मालूम है कि हमारे देश का यह युवा इण्डिया की राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रथम शोधार्थी है। डा0 तैस्सीतोरी ने विश्वकवि तुलसीदास को वाल्मीकि रामायण का अनुवादक न मानते हुए सर्वप्रथम उनको स्वतन्त्र रचनाकार के रूप में सिद्ध किया।

तीस वर्षीय युवा अधिकारी श्री कृष्ण कुमार यादव पर लिखते समय उपरोक्त घटनाक्रम स्मरण हो आये। वर्तमान प्रशासनिक अधिकारियों से तद्विषयक चर्चा करने पर वह ‘समयाभाव‘ कहते हुए साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक कार्यों के प्रति अभिरुचि नहीं रखते हैं। जिन कंधों के ऊपर राष्ट्र का नेतृत्व टिका हुआ है, यदि वे ही समयाभाव की आड़ में साहित्य-संस्कृति की अपनी सुदृढ़ परम्पराओं की उपेक्षा करने लगें तो राष्ट्र की आगामी पीढ़ियाँ भला उनसे क्या सबक लेंगीं? पर सौभाग्यवश अभी भी प्रशासनिक व्यवस्था में कुछ ऐसे अधिकारी हैं जो अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक जिम्मेदारियों को भी बखूबी समझते हैं और इसे अपने दायित्वों का ही एक अंग मानकर क्रियाशील हैं।




ऐसे अधिकारियों के लिए पद की जिम्मेदारियां सिर्फ कुर्सी से नहीं जुड़ी हुई हैं बल्कि वे इसे व्यापक आयामों, मानवीय संवेदनाओं और अनुभूतियों के साथ जोड़कर देखते हैं। भारतीय डाक सेवा के अधिकारी श्री कृष्ण कुमार यादव ऐसे ही अधिकारियों में से हैं। प्रशासन में बैठकर भी आम आदमी के मर्म और उसके जीवन की जद्दोजहद को जिस गहराई से श्री यादव छूते हैं, वह उन्हें अन्य अधिकारियों से अलग करती है। जीवन तो सभी लोग जीते हैं, पर सार्थक जीवन कम ही लोग जीते हैं। नई स्फूर्ति, नई ऊर्जा, नई शक्ति से आच्छादित श्री यादव प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन की इस उक्ति के सार्थक उदाहरण हैं कि-‘‘सिर्फ सफल होने की कोशिश न करें, बल्कि मूल्य-आधारित जीवन जीने वाला मनुष्य बनने की कोशिश कीजिए।‘‘ आपके सम्बन्ध में काव्य-मर्मज्ञ एवं पद्मभूषण श्री गोपाल दास ‘नीरज‘ जी के शब्द गौर करने लायक हैं- ‘‘कृष्ण कुमार यादव यद्यपि एक उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारी हैं, किन्तु फिर भी उनके भीतर जो एक सहज कवि है वह उन्हें एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में प्रस्तुत करने के लिए निरन्तर बेचैन रहता है। उनमें बुद्धि और हृदय का एक अपूर्व सन्तुलन है। वो व्यक्तिनिष्ठ नहीं समाजनिष्ठ साहित्यकार हैं जो वर्तमान परिवेश की विद्रूपताओं, विसंगतियों, षडयन्त्रों और पाखण्डों का बड़ी मार्मिकता के साथ उद्घाटन करते हैं।’’

प्रशासन के साथ साहित्य में अभिरुचि रखने वाले श्री कृष्ण कुमार युवा पीढ़ी के अत्यन्त सक्रिय रचनाकार हैं। पदीय दायित्वों का निर्वाहन करते हुए और लोगों से नियमित सम्पर्क-संवाद स्थापित करते हुए जो बिंब उनके मन-मस्तिष्क पर बनते हैं, उनकी कलात्मक अभिव्यंजना उनकी साहित्यिक रचनाओं में स्पष्ट देखी जा सकती है। इन विलक्षण रचनाओं के गढ़ने में उनकी संवेदनशीलता, सतत् काव्य-साधना, गहन अध्ययन, चिंतन-अवचिंतन, अवलोकन, अनुभूतियों आदि की महत्वपूर्ण भूमिका है। बकौल प्रो0 सूर्य प्रसाद दीक्षित- ’’कृष्ण कुमार यादव न किसी वैचारिक आग्रह से प्रतिबद्ध हैं और न किसी कलात्मक फैशन से ग्रस्त हैं। उनका आग्रह है- सहज स्वाभाविक जीवन के प्रति और रचनाओं में उसी के यथावत अकृत्रिम उद्घाटन के प्रति।’’ यही कारण है कि मुख्यधारा के साथ-साथ बाल साहित्य से भी रचनात्मक जुड़ाव रखने वाले श्री यादव की अल्प समय में ही दो निबन्ध संग्रह ’’अभिव्यक्तियों के बहाने’’ व ’’अनुभूतियाँ और विमर्श’’, एक काव्य संग्रह ’’अभिलाषा’’, 1857-1947 की क्रान्ति गाथा को सहेजती ’’क्रान्ति-यज्ञ’’ एवं भारतीय डाक के इतिहास को कालानुक्रम में समेटती ’’इण्डिया पोस्ट: 150 ग्लोरियस ईयर्स’’ सहित कुल पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अपने व्यस्ततम शासकीय कार्यों में साहित्य या रचना-सृजन को बाधक नहीं मानने वाले श्री यादव की रचनाएँ देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और सूचना-संजाल के इस दौर में तमाम अन्तर्जाल पत्रिकाओं- सृजनगाथा, अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट इत्यादि में नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं। श्री यादव स्वयं अंतर्जाल पर 'शब्द सृजन की ओर' और 'डाकिया डाक लाया' नामक ब्लॉगों का सञ्चालन भी करते हैं. आकाशवाणी लखनऊ, कानपुर और पोर्टब्लेयर से कविताओं, वार्ता, परिचर्चा इत्यादि के प्रसारण के साथ-साथ 50 से अधिक प्रतिष्ठित संकलनों में विभिन्न विधाओं में उनकी सशक्त रचनाधर्मिता के दर्शन होते हैं। प्रशासन के साथ-साथ उनकी विलक्षण रचनाधर्मिता के मद्देनजर कानपुर से प्रकाशित ’’बाल साहित्य समीक्षा’’ (स0 : डा0 राष्ट्रबंधु) एवं इलाहाबाद से प्रकाशित ’’गुफ्तगू'' पत्रिकाओं ने उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक जारी किये हैं। यही नहीं उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को समेटती और एक साहित्यिक व्यक्तित्व के रूप में उनके योगदान को परिलक्षित करती , दुर्गाचरण मिश्र द्वारा सम्पादित पुस्तक ’’बढ़ते चरण शिखर की ओर: कृष्ण कुमार यादव’’ भी प्रकाशित हो चुकी है.

निश्चिततः ऐसे में उनकी रचनाधर्मिता ऐतिहासिक महत्व की अधिकारी है। प्रशासनिक पद पर रहने के कारण वे जीवन के यथार्थ को बहुत बारीकी से महसूस करते हैं। उनकी कविताओं में प्रकृति चित्रण और जीवन के श्रृंगार के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक सरोकारों से भरपूर जीवन का यथार्थ और भी मन को गुदगुदाता है। प्रसिद्ध साहित्यकार डा0 रामदरश मिश्र लिखते हैं कि- ’’कृष्ण कुमार की कविताएं सहज हैं, पारदर्शी हैं, अपने समय के सवालों और विसंगतियों से रूबरू हैं। इनकी संवेदनशीलता अपने भीतर से एक मूल्यवादी स्वर उभारती है।’’ वस्तुतः एक प्रतिभासम्पन्न, उदीयमान् नवयुवक रचनाकार में भावों की जो मादकता, मोहकता, आशा और महत्वाकांक्षा की जो उत्तेजना एवं कल्पना की जो आकाशव्यापी उड़ान होती है, उससे कृष्ण कुमार जी का व्यक्तित्व-कृतित्व ओत-प्रोत है। ‘क्लब कल्चर‘ एवं अपसंस्कृति के इस दौर में एक युवा प्रशासनिक अधिकारी की हिन्दी-साहित्य के प्रति ऐसी अटूट निष्ठा व समर्पण शुभ एवं स्वागत योग्य है। ऐसा अनुभव होता है कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन के जनपद आज़मगढ़ की माटी का प्रभाव श्री यादव पर पड़ा है।

श्री कृष्ण कुमार यादव अपनी कर्तव्यनिष्ठा में ऊपर से जितने कठोर दिखाई पड़ते हैं, वह अन्तर्मन से उतने ही कवि-हृदय के कोमल व्यक्तित्व वाले हैं। स्पष्ट सोच, पारखी दृष्टिकोण एवम् दृढ़ इच्छाशक्ति से भरपूर श्री यादव जी की जीवन संगिनी श्रीमती आकांक्षा यादव भी संस्कृत विषय की प्रखर प्रवक्ता एवं विदुषी कवयित्री व लेखिका हैं, सो सोने में सुहागा की लोकोक्ति स्वतः साकार हो उठती है। सुविख्यात समालोचक श्री सेवक वात्स्यायन इस साहित्यकार दम्पत्ति को पारस्परिक सम्पूर्णता की उदाहृति प्रस्तुत करने वाला मानते हुए लिखते हैं - ’’जैसे पंडितराज जगन्नाथ की जीवन-संगिनी अवन्ति-सुन्दरी के बारे में कहा जाता है कि वह पंडितराज से अधिक योग्यता रखने वाली थीं, उसी प्रकार श्रीमती आकांक्षा और श्री कृष्ण कुमार यादव का युग्म ऐसा है जिसमें अपने-अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व के कारण यह कहना कठिन होगा कि इन दोनों में कौन दूसरा एक से अधिक अग्रणी है।’’

श्री यादव की कृतियों पर समीक्षक ही अपने विचार व्यक्त करने की क्षमता रखते हैं पर इतने कम समय में उन्होंने साहित्यिक एवं प्रशासनिक रूप में अपनी एक अलग पहचान बनाई है, जो विरले ही देखने को मिलती हैं। प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती, अस्तु प्रशासकीय व्यस्तताओं के मध्य विराम समय में उनकी सरस्वती की लेखनी सतत् चलती रहती है। यही नहीं, वह दूसरों को भी उत्साहित करने में सक्रिय योगदान देते रहते हैं। उनकी पुस्तक ’’अनुभूतियाँ और विमर्श’’ के कानपुर में विमोचन के दौरान पद्मश्री गिरिराज किशोर जी के शब्द याद आते हैं- ’’आज जब हर लेखक पुस्तक के माध्यम से सिर्फ आपने बारे में बताना चाहता है, ऐसे में कृष्ण कुमार जी की पुस्तक में तमाम साहित्यकारों व मनीषियों के बारे में पढ़कर सुकून मिलता है और इस प्रकार युवा पीढ़ी को भी इनसे जोड़ने का प्रयास किया गया है।’’ मुझे ऐसा अनुभव होता है कि ऐसे लगनशील व कर्मठ व्यक्तित्व वाले श्री कृष्ण कुमार यादव पर साहित्य मनीषी कविवर डा0 अम्बा प्रसाद ‘सुमन’ की पंक्तियाँ उनके कृतित्व की सार्थकता को उजागर करती हैं-चरित्र की ध्वनि शब्द से ऊँची होती है/कल्पना कर्म से सदा नीचे होती है/प्रेम जिहृI में नहीं नेत्रों में है/नेत्रों की वाणी की व्याख्या कठिन है/मौन रूप प्रेम की परिभाषा कठिन है /चरित्र करने में है कहने में नहीं/चरित्र की ध्वनि शब्द से ऊँची होती है।

डा0 बद्री नारायण तिवारी, संयोजक- राष्ट्रभाषा प्रचार समिति-वर्धा, उत्तर प्रदेश
पूर्व अध्यक्ष-उ0प्र0 हिन्दी साहित्य सम्मेलन, संयोजक-मानस संगम
38/24, शिवाला, कानपुर (उ0प्र0)-208001

(कृष्ण कुमार यादव के जन्मदिवस,10 अगस्त पर श्री बद्री नारायण तिवारी जी का यह लेख साभार प्रकाशित. चित्र में कृष्ण कुमार और तिवारी जी साथ दिख रहे हैं. )

रविवार, 7 अगस्त 2011

मंडल कमीशन के 21 वर्ष...

मंडल कमीशन की रिपोर्ट के लागू होने के आज 21 वर्ष पूरे हो गए. भारतीय राजनीति को नई दिशा देने में मंडल-कमीशन की अहम् भूमिका रही है. इसी के बाद से भारतीय राजनीति और समाज व प्रशासन का चेहरा बदलना शुरू हुआ. आरक्षण के माध्यम से जहाँ पिछड़ों को उनका हक़ मिला, वहीँ भागीदारी भी. सामाजिक न्याय के पैरोकार रूप में बी. पी. मंडल की भूमिका आज भी उतने ही प्रासंगिक है।


स्वतन्त्रता पश्चात यादव कुल के जिन लोगों ने प्रतिष्ठित कार्य किये, उनमें बी0पी0 मंडल का नाम प्रमुख है। बिहार के मधेपुरा जिले के मुरहो गाँव में पैदा हुए बी0पी0 मंडल 1968 में बिहार के मुख्यमंत्री बने। 1978 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष रूप में 31 दिसम्बर 1980 को मंडल कमीशन के अध्यक्ष रूप में इसके प्रस्तावों को राष्ट्र के समक्ष उन्होंने पेश किया। यद्यपि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने में एक दशक का समय लग गया पर इसकी सिफारिशों ने देश के समाजिक व राजनैतिक वातावरण में काफी दूरगामी परिवर्तन किए। कहना गलत न होगा कि मंडल कमीशन ने देश की भावी राजनीति के समीकरणांे की नींव रख दी।


बहुत कम ही लोगों को पता होगा कि बी0 पी0 मंडल के पिता रास बिहारी मंडल जो कि मुरहो एस्टेट के जमींदार व कांग्रेसी थे, ने ‘‘अखिल भारतीय गोप जाति महासभा’’ की स्थापना की और सर्वप्रथम माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड समिति के सामने 1917 में यादवों को प्रशासनिक सेवा में आरक्षण देने की माँग की। यद्यपि मंडल परिवार रईस किस्म का था और जब बी0पी0 मंडल का प्रवेश दरभंगा महाराज (उस वक्त दरभंगा महाराज देश के सबसे बडे़ जमींदार माने जाते थे) हाई स्कूल में कराया गया तो उनके साथ हाॅस्टल में दो रसोईये व एक खवास (नौकर) को भी भेजा गया। पर इसके बावजूद मंडल परिवार ने सदैव सामाजिक न्याय की पैरोकारी की, जिसके चलते अपने हलवाहे किराय मुसहर को इस परिवार ने पचास के दशक के उत्तरार्द्ध में यादव बहुल मधेपुरा से सांसद बनाकर भेजा। राष्ट्र के प्रति बी0पी0 मंडल के अप्रतिम योगदान पर 1 जून 2001 को उन पर डाक टिकट जारी किया गया।


इतिहास में मील का पत्त्थर माने जाने वाले मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू हुए आज 21 साल पूरे हो गए..पर अभी भी लड़ाई जारी है, अपने हकों की.

शनिवार, 6 अगस्त 2011

साहित्य के प्रति समर्पित : प्रो. उषा यादव

प्रो. उषा यादव का नाम हिंदी-साहित्य में किसी परिचय का मोहताज नहीं है. उन्होंने लगभग हर विधा में लिखा है और खूब लिखा है. उनके विस्तृत जीवन-परिचय और कृतित्व के लिए देखें-











(बड़े रूप में अच्छे से पढने के लिए फोटो पर चटका लगायें.)


सोमवार, 1 अगस्त 2011

‘हंस‘ के 25 साल और हिन्दी साहित्य के ‘द ग्रेट शो मैन‘ राजेन्द्र यादव

यदि भारत में आज हिन्दी साहित्य जगत की लब्धप्रतिष्ठित पत्रिकाओं का नाम लिया जाये तो उनमें शीर्ष पर है-हंस और यदि मूर्धन्य विद्वानों का नाम लिया जाय तो सर्वप्रथम राजेन्द्र यादव का नाम सामने आता है। साहित्य सम्राट प्रेमचंद की विरासत व मूल्यों को जब लोग भुला रहे थे, तब राजेन्द्र यादव ने प्रेमचंद द्वारा 1930 में प्रकाशित पत्रिका ‘हंस’ का पुर्नप्रकाशन आरम्भ करके साहित्यिक मूल्यों को एक नई दिशा दी।

अपने 25 साल पूरे कर चुकी यह पत्रिका अपने अन्दर कहानी, कविता, लेख, संस्मरण, समीक्षा, लघुकथा, गजल इत्यादि सभी विधाओं को उत्कृष्टता के साथ समेटे हुए है। ‘‘मेरी-तेरी उसकी बात‘‘ के तहत प्रस्तुत राजेन्द्र यादव की सम्पादकीय सदैव एक नये विमर्श को खड़ा करती नजर आती है। यह अकेली ऐसी पत्रिका है जिसके सम्पादकीय पर तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाएं किसी न किसी रूप में बहस करती नजर आती हैं। समकालीन सृजन संदर्भ के अन्तर्गत भारत भारद्वाज द्वारा तमाम चर्चित पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं पर चर्चा, मुख्तसर के अन्तर्गत साहित्य-समाचार तो बात बोलेगी के अन्तर्गत कार्यकारी संपादक संजीव के शब्द पत्रिका को धार देते हैं। साहित्य में अनामंत्रित एवं जिन्होंने मुझे बिगाड़ा जैसे स्तम्भ पत्रिका को और भी लोकप्रियता प्रदान करते है।

कविता से लेखन की शुरूआत करने वाले हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने बड़ी बेबाकी से सामन्ती मूल्यों पर प्रहार किया और दलित व नारी विमर्श को हिन्दी साहित्य जगत में चर्चा का मुख्य विषय बनाने का श्रेय भी उनके खाते में है। निश्चिततः यह तत्व हंस पत्रिका में भी उभरकर सामने आता है। आज भी ‘हंस’ पत्रिका में छपना बड़े-बड़े साहित्यकारों की दिली तमन्ना रहती है। न जाने कितनी प्रतिभाओं को इस पत्रिका ने पहचाना, तराशा और सितारा बना दिया, तभी तो इसके संपादक राजेन्द्र यादव को हिन्दी साहित्य का ‘द ग्रेट शो मैन‘ कहा जाता है। निश्चिततः साहित्यिक क्षेत्र में हंस एवं इसके विलक्षण संपादक राजेन्द्र यादव का योगदान अप्रतिम है।

(राजेंद्र यादव के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए क्लिक करें- http://en.wikipedia.org/wiki/Rajendra_Yadav)
संपर्क-राजेन्द्र यादव, अक्षर प्रकाशन प्रा0 लि0, 2/36 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली

हंस के जरिये हिंदी का इतिहास बनाया राजेंद्र यादव ने - नामवर सिंह

हंसाक्षर ट्रस्‍ट और ऐवाने गालिब की ओर से 'हंस' पत्रिका के पचीस साल पूरे होने पर रविवार को आयोजित रजत जयंती समारोह में 'साहित्यिक पत्रकारिता और हंस' पर बोलते हुए हिंदी के वरिष्‍ठ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि 'हंस' के जरिए इसके संपादक राजेंद्र यादव ने हिंदी के इतिहास को बनाने के साथ-साथ उसे पालने-पोसने का काम भी किया है. नामवर सिंह ने 'हंस' में अपनाए गए लोकतांत्रिक रुख की प्रशंसा करते हुए कहा कि हंस में निंदकों को भी उतनी ही जगह और स्‍वतंत्रता दी गई जितनी प्रशंसकों को. उन्‍होंने मुंशी प्रेमचंद के जमाने से 'हंस' के इतिहास को उजागर करते हुए कहा कि प्रेमचंद के 'हंस' के बाद 'हंस' का एक नया अर्द्धवार्षिक अंक निकला, लेकिन वह अंक भी पहला और आखिरी साबित हुआ. इसके बाद राजेंद्र यादव ने इसकी शुरुआत की, जो आज भी नियमित प्रकाशित हो रही है. 'हंस' के बारे में दूसरे संपादकों की टिप्‍पणियों का हवाला देते हुए सिंह ने कहा कि भविष्‍य में जब भी कोई हिंदी पत्रिकाओं का इतिहास टटोलेगा तो 'हंस' का नाम स्‍वर्ण अक्षरों में दर्ज मिलेगा. उन्‍होंने युवा पीढ़ी को राजेंद्र यादव से कहानी लिखने की शैली सीखने का आह्वान किया.

इस मौके पर वरिष्‍ठ साहित्‍यकार राजेंद्र यादव ने 'हंस' के पचीस साल के सफर में सहयोग देने वाले हर शख्‍स को धन्‍यवाद दिया और कहा कि उन्‍हें कई दफा ठोकरें लगीं और वे कई दफा घबराए भी लेकिन इतने लोगों के साथ ने उन्‍हें कभी निराश नहीं होने दिया. राजेंद्र यादव ने आश्‍वस्‍त किया कि 'हंस' का सफर आगे भी जारी रहेगा.

कार्यक्रम में संजीव, टीएम लालानी, गौतम नवलखा और अनिता वर्मा ने भी अपने विचार रखे. इस मौके पर 'पचीस साल पचीस कहानियां' और 'मुबारक पहला कदम' पुस्‍तकों का लोकार्पण भी किया गया. कार्यक्रम की शुरुआत में 'हंस' को योगदान देने वालों में संजीव, हरिनारायण, गौतम नवलखा, अर्चना वर्मा, विभांशु दिव्‍याल, दुर्गा प्रसाद, किशन राय, टीएम लालानी और विनोद खन्‍ना को सम्‍मानित किया गया. कार्यक्रम में तसलीमा नसरीन भी मौजूद थीं. कार्यक्रम का संचालन अजय नावरिया ने किया !

चर्चित साहित्यकार राजेन्द्र यादव को शब्द साधक शिखर सम्मान

जे सी जोशी स्मृति साहित्य सम्मान के तहत दिया जाने वाला चौथा शब्द साधक शिखर सम्मान हिन्दी के प्रख्यात कथाकार और हंस के संपादक श्री राजेन्द्र यादव को देने का निर्णय हुआ है । श्री यादव को यह सम्मान आगामी 27 अगस्त को उनके जन्मदिन की पूर्व संध्या पर पाखी महोत्सव में दिया जायेगा । इस सम्मान के तहत उन्हें 51 हजार रुपये, एक स्मृति चिह्न और प्रशस्ति पत्र दिया जायेगा । इस मौके पर पाखी के श्री राजेन्द्र यादव पर केंद्रित अंक का लोकार्पण भी होना है । यह सूचना श्री अपूर्व जोशी ने दी, जो इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसायटी के अध्यक्ष और दि संडे पोस्ट के संपादक हैं। गौरतलब है कि इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसायटी पिछले दस साल से हिन्दी साहित्य का प्रकाशन तथा अन्य सामाजिक गतिविधियां कर रही है । जिसमें दस साल से लगातार हिन्दी साप्ताहिक अखबार दि संडे पोस्ट के प्रकाशन के अलावा तीन साल से हिन्दी पत्रिका पाखी का भी प्रकाशन कर रही है । इसके अलावा सोसायटी ने कई जाने माने लेखकों की पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं ।

श्री राजेन्द्र यादव के पहले यह सम्मान स्व. विष्णु प्रभाकर, श्रीलाल शुक्ल और श्री नामवर सिंह को दिया जा चुका है । यह सम्मान उन्हें समग्र साहित्यिक अवदान के लिये दिया जा रहा है। नयी कहानी आंदोलन की त्रयी में से एक रहे राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को आगरा में हुआ। ‘सारा आकाश’, ‘उखड़े हुए लोग’, ‘शह और मात’ जैसे उपन्यास लिख चुके श्री राजेन्द्र यादव अगस्त 1986 से हंस मासिक साहित्यिक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं । इस पत्रिका ने दलित और स्त्री विमर्श को नयी जमीन दी । हंस ने इस साल 25 वर्ष पूरे कर रजत जयंती मनायी है ।

'यदुकुल' की तरफ से राजेंद्र यादव जी को कोटिश: बधाई !!