सोमवार, 26 दिसंबर 2011

भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा राम शिव मूर्ति यादव को ‘’डा. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान-2011‘‘

भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा 11-12 दिसंबर को दिल्ली के पंचशील आश्रम, झड़ोदा (बुराड़ी) में आयोजित 27 वें राष्ट्रीय दलित साहित्यकार सम्मलेन में सामाजिक न्याय सम्बन्धी लेखन, विशिष्ट कृतित्व, समृद्ध साहित्य-साधना एवं समाज सेवा हेतु श्री राम शिव मूर्ति यादव को ‘’डा. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान-2011‘‘ से सम्मानित किया गया। उक्त समारोह में केंद्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला ने श्री यादव को यह सम्मान प्रदान किया। इस अवसर पर ओड़ीशा, महाराष्ट्र, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, केरल तथा आंध्र-प्रदेश के कलाकारों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम कर शमा बांधा.

उत्तर प्रदेश सरकार में स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी पद से सेवानिवृत्ति पश्चात तहबरपुर-आजमगढ़ जनपद निवासी श्री राम शिव मूर्ति यादव एक लम्बे समय से शताधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक विषयों पर प्रखरता से लेखन कर रहे हैं। श्री यादव की ‘सामाजिक व्यवस्था एवं आरक्षण‘ नाम से एक पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है। आपके तमाम लेख विभिन्न स्तरीय पुस्तकों और संकलनों में भी प्रकाशित हैं। इसके अलावा आपके लेख इंटरनेट पर भी तमाम चर्चित वेब/ई/ऑनलाइन पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग पर पढ़े-देखे जा सकते हैं। श्री राम शिव मूर्ति यादव ब्लागिंग में भी सक्रिय हैं और ”यदुकुल” (http://www.yadukul.blogspot.com/) ब्लॉग का आप द्वारा 10 नवम्बर 2008 से सतत संचालन किया जा रहा है।

इससे पूर्व श्री राम शिव मूर्ति यादव को भारतीय दलित साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा ‘ज्योतिबाफुले फेलोशिप सम्मान-2007‘, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ, इलाहाबाद द्वारा ‘भारती ज्योति’ सम्मान, आसरा समिति, मथुरा द्वारा ‘बृज गौरव‘, ‘समग्रता‘ शिक्षा साहित्य एवं कला परिषद, कटनी, म0प्र0 द्वारा ’भारत-भूषण’, अम्बेडकरवादी साहित्य को प्रोत्साहित करने एवं तत्संबंधी लेखन हेतु रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष श्री रामदास आठवले द्वारा ‘अम्बेडकर रत्न अवार्ड 2011‘ इत्यादि से सम्मानित किया है।

भारतीय दलित साहित्य अकादमी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. सोहनपाल सुमनाक्षर ने उक्त जानकारी देते हुए बताया कि इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री डॉ॰ फारुख अब्दुल्ला, लोकसभा के उपाध्यक्ष श्री करिया मुंडा एवं अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महामंत्री चौधरी वीरेंद्र सिंह बतौर मुख्य अतिथि मौजूद थे । इस सम्मेलन को सुशोभित करने वाले अन्य मुख्य अतिथियों में अरुणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल एवं चर्चित दलित साहित्यकार डॉ माता प्रसाद, दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष श्री पी॰ एल॰ पुनिया, पूर्व केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री डॉ॰ सत्य नारायण जटिया, पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं सम्प्रति राज्य सभा सांसद श्री रामविलास पासवान, दिल्ली विधान सभा उपाध्यक्ष श्री अमरीश सिंह गौतम, त्रिपुरा के शिक्षा मंत्री श्री अनिल सरकार, महाराष्ट्र के पूर्व समाज कल्याण मंत्री व सम्प्रति विधायक श्री बबनराव घोलप, आर॰ पी॰ आई॰ के अध्यक्ष व पूर्व सांसद श्री रामदास अठावले, गोवा विधानसभा के पूर्व डिप्टी स्पीकर श्री शंभुभाऊ बांडेकर, गुरु जम्भेश्वर तकनीकी यूनिवर्सिटी के कुलपति डॉ॰ एम॰ एल॰ रंगा, झांसी यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति प्रो॰ रमेश चन्द्र, दिल्ली की मेयर प्रो॰ रजनी अब्बी एवं लखनऊ के पूर्व मेयर डॉ दाऊजी गुप्ता सहित तमाम साहित्यकार, शिक्षाविद, संस्कृतिकर्मी,पत्रकार इत्यादि उपस्थित थे। इस सम्मेलन में देश के सभी प्रान्तों और संघ शासित प्रदेश के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। विदेशों से नेपाल, अमेरिका, ब्रिटेन, मारिशस, श्रीलंका इत्यादि देशों के प्रतिनिधियों ने भी शिरकत की ।

गोवर्धन यादव
संयोजक-राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, छिन्दवाड़ा
103 कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा (म0प्र0)-480001

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

मैं कोसी यादव

राजनीति का नशा भी अजीब होता है. आखिर कुर्सी भला किसे ख़राब लगती है. कई बार ऐसे जुनूनी किस्से सुनाने को मिलते हैं कि बस...! ऐसी ही एक रिपोर्ट के अनुसार के अनुसार बिहार में 1998 के संसदीय चुनाव में 'कोसी यादव' नामक व्यक्ति ने अपनी सारी संपत्ति बेच कर चुनावी अखाड़े में अपनी किस्मत आजमाने का दुस्साहस दिखाया. आज भी लोकतंत्र ऐसे ही दुस्साहसियों के भरोसे ही है और कल भी रहेगा! इसी भावभूमि पर 'सागर त्रिवेदी' ने एक बेजोड़ कविता लिखी है और इसे यहाँ पर bihardays.com से साभार प्रकाशित किया जा रहा है-

उम्र तिरपन चार बच्चे
डेढ़ एकड़ खेत दो बैल
तीन बीजू आम के झाड़
सात सीसो के, एक
कटहल का दरख़्त
उजड़ी बंसवारी में एक सेमल भी
मैं और मेरी जोड़ी के बीच
एक लम्बी जीभ, छै गज अंतड़ी फी
और एक भोथर हल, दरका ओखल
क्या करूं मैं क्या खाऊँ क्या सोचूँ क्या पोसूं

——
जीत यादव उम्र बनी तीस
सजात चालाक खरहा, नाते में
सुदूर भगिना
शहर की हर पान दूकान का थुकनिहार, चाबक
उसने राय दी छोडो चिंता छोटी, मामा ततकाल
चुनावी लहर पर छहर कर दूर निकल जाओ
पंचायत नहीं जिला परिषद् नहीं विधानसभा नहीं
दिल्ली के गोलाकार संसद में
जहाँ आदमी की असली कीमत आंकी जाती है
——-

मै कोसी यादव, बिके बीघे डेढ़
घूमने लगा छुट्टा मै घर घर
बताशा पानी दो थके मांदे को
वोट दो नेता बनाओ
खुद अपने विम्ब की छाँही को
साथ में कुत्ते लगे, लगे आवारे बीड़ी मांगने
परदे के पीछे भौजाइयों की हंसती सहानुभूति मिली
चौबे पञ्च हंसा तो एकदम अनरोक
अपमानित अहीर को हज़ार साल बाद गुस्सा आवे तो कैसे आवे
अपमानित अहीर को हज़ार साल बाद रोना भी क्यों आये, डटा रहे वो
सिर्फ कसीं कलाई की नसें
मैंने अकेले कहा कोसी जिंदाबाद
सवाल ये नहीं कि कोसी क्यों
सवाल असल ये है की कोसी क्यों नहीं?
———-

ना हम में कोई खासियत है तेज है चमक है
ना ही जीप है पैसा बन्दूक है
ना ही किसी प्यासे बटोही को कभी ठंढई पिलाया
ना ही कुम्हार चमार पर बेमानी थप्पड़ चलाया
जवार में हर कोई कोसी को जानता है
पर कोई खास कारणवश नहीं
जवार में हर पेड़ हर मेड़ हर पाठे की पहचान है
जीत कहता है मामा चुनाव लड़ो
अभी अदने हो बढाओ कदम बढ़े कद
भगिना धोखेबाज़ पहुँचे में मुस्कराता है
उस खिलंदर को नहीं मालूम
आदमी छोटा चुनाव हारने से
और छोटा नहीं हो जाता है

———–

अतीत के भगत सत का हिसाब नहीं जोड़े
साँच के लोलुप मुंशी नहीं होते थे
बेरोक सुनते आतंरिक पुकार, गुहार देते थे
बारह की उम्र में कच्छी तान
बाकी दुनियादारी सब अगल बगल झटपट फ़ेंक लेते थे
कोई बन भटके कोई तीर्थ
कोई मेले मेले घूमता हाय गुरु हाय गुरु मिलो कहाँ मिलो
कोई किसी बरगद तले पालथी मारता
तो ना बर्रे करे टस, ना हुणार करे मस्स
लगन होती थी गोह सी ज़बरदस्त, आज जैसी ढीली नहीं
चूँकि आत्मा तेज़ तर्रार होती थी

———
कोसी निरा आम – ना भक्ति, ना दया, ना क्रोध
अन्दर ना लगन ना पुकार
एक चपटा कागजी अहीर डेढ़ बीघे वाला, उम्र तिरपन
तीन पेटू बेटियां एक बीमार लड़का
जोरू जो माने मुझे दुनियादारी का चैम्पियन,
पर मैं उकसाने से कंडीडेट नहीं बना कतई, दुनिया को जीत को वहम है
सच ये है कि मेरे दिल में बसा दिल्ली का गम है
कैसे पुकारे है राजधानी मेरा नाम ‘कोसी, कोसी, कोसी’
हाय कितना मार्मिक है
हाय राम, हाय ये कौन सी लगन है
जानूं ना कि दिल्ली का लाल पथरीला हाथ, हाथ मेरे पकड़े है विनय से
या थामे उँगलियाँ अति प्रेम से, या लागे मेरा गोड़
या सरकते हैं उसके पंजे धीरे धीरे मेरे टेंटुए की ओर!

-सागर त्रिवेदी

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा आकांक्षा यादव को ‘’डा. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान-2011‘‘

भारतीय दलित साहित्य अकादमी ने युवा कवयित्री, साहित्यकार एवं चर्चिर ब्लागर आकांक्षा यादव को ‘’डाॅ0 अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान-2011‘‘ से सम्मानित किया है। आकांक्षा यादव को यह सम्मान साहित्य सेवा एवं सामाजिक कार्यों में रचनात्मक योगदान के लिए प्रदान किया गया है। उक्त सम्मान भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा 11-12 दिसंबर को दिल्ली में आयोजित 27 वें राष्ट्रीय दलित साहित्यकार सम्मलेन में केंद्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला द्वारा प्रदान किया गया.

गौरतलब है कि आकांक्षा यादव की रचनाएँ देश-विदेश की शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं. नारी विमर्श, बाल विमर्श एवं सामाजिक सरोकारों सम्बन्धी विमर्श में विशेष रूचि रखने वाली आकांक्षा यादव के लेख, कवितायेँ और लघुकथाएं जहाँ तमाम संकलनो / पुस्तकों की शोभा बढ़ा रहे हैं, वहीँ आपकी तमाम रचनाएँ आकाशवाणी से भी तरंगित हुई हैं. पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ अंतर्जाल पर भी सक्रिय आकांक्षा यादव की रचनाएँ इंटरनेट पर तमाम वेब/ई-पत्रिकाओं और ब्लॉगों पर भी पढ़ी-देखी जा सकती हैं. व्यक्तिगत रूप से ‘शब्द-शिखर’ और युगल रूप में ‘बाल-दुनिया’ , ‘सप्तरंगी प्रेम’ ‘उत्सव के रंग’ ब्लॉग का संचालन करने वाली आकांक्षा यादव न सिर्फ एक साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं, बल्कि सक्रिय ब्लागर के रूप में भी उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है. 'क्रांति-यज्ञ: 1857-1947 की गाथा‘ पुस्तक का कृष्ण कुमार यादव के साथ संपादन करने वाली आकांक्षा यादव के व्यक्तित्व-कृतित्व पर वरिष्ठ बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु जी ने ‘बाल साहित्य समीक्षा‘ पत्रिका का एक अंक भी विशेषांक रुप में प्रकाशित किया है।

मूलत: उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ और गाजीपुर जनपद की निवासी आकांक्षा यादव वर्तमान में अपने पतिदेव श्री कृष्ण कुमार यादव के साथ अंडमान-निकोबार में रह रही हैं और वहां रहकर भी हिंदी को समृद्ध कर रही हैं. श्री यादव भी हिंदी की युवा पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं और सम्प्रति अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के निदेशक डाक सेवाएँ पद पर पदस्थ हैं. एक रचनाकार के रूप में बात करें तो सुश्री आकांक्षा यादव ने बहुत ही खुले नजरिये से संवेदना के मानवीय धरातल पर जाकर अपनी रचनाओं का विस्तार किया है। बिना लाग लपेट के सुलभ भाव भंगिमा सहित जीवन के कठोर सत्य उभरें यही आपकी लेखनी की शक्ति है। उनकी रचनाओं में जहाँ जीवंतता है, वहीं उसे सामाजिक संस्कार भी दिया है।

इससे पूर्व भी आकांक्षा यादव को विभिन्न साहित्यिक-सामाजिक संस्थानों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। जिसमें भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ’भारती ज्योति’, ‘‘एस0एम0एस0‘‘ कविता पर प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा पुरस्कार, इन्द्रधनुष साहित्यिक संस्था, बिजनौर द्वारा ‘‘साहित्य गौरव‘‘ व ‘‘काव्य मर्मज्ञ‘‘, श्री मुकुन्द मुरारी स्मृति साहित्यमाला, कानपुर द्वारा ‘‘साहित्य श्री सम्मान‘‘, मथुरा की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘‘आसरा‘‘ द्वारा ‘‘ब्रज-शिरोमणि‘‘ सम्मान, मध्यप्रदेश नवलेखन संघ द्वारा ‘‘साहित्य मनीषी सम्मान‘‘ व ‘‘भाषा भारती रत्न‘‘, छत्तीसगढ़ शिक्षक-साहित्यकार मंच द्वारा ‘‘साहित्य सेवा सम्मान‘‘, देवभूमि साहित्यकार मंच, पिथौरागढ़ द्वारा ‘‘देवभूमि साहित्य रत्न‘‘, राजेश्वरी प्रकाशन, गुना द्वारा ‘‘उजास सम्मान‘‘, ऋचा रचनाकार परिषद, कटनी द्वारा ‘‘भारत गौरव‘‘, अभिव्यंजना संस्था, कानपुर द्वारा ‘‘काव्य-कुमुद‘‘, ग्वालियर साहित्य एवं कला परिषद द्वारा ‘‘शब्द माधुरी‘‘, महिमा प्रकाशन, दुर्ग-छत्तीसगढ द्वारा ’महिमा साहित्य भूषण सम्मान’ , अन्तर्राष्ट्रीय पराविद्या शोध संस्था, ठाणे, महाराष्ट्र द्वारा ‘‘सरस्वती रत्न‘‘, अन्तज्र्योति सेवा संस्थान गोला-गोकर्णनाथ, खीरी द्वारा श्रेष्ठ कवयित्री की मानद उपाधि. जीवी प्रकाशन, जालंधर द्वारा 'राष्ट्रीय भाषा रत्न' इत्यादि शामिल हैं.

आकांक्षा यादव को इस सम्मान-उपलब्धि पर हार्दिक बधाइयाँ !!

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

डा. कुमार विमल : आखिर खो ही गया यदुवंश का सपूत

'यदुवंश' की तमाम ऐसी विभूतियाँ हैं, जिन्होंने उन ऊँचाइयों को छुआ है, जिन पर हम सब नाज करते हैं. ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे- डा. कुमार विमल, जिनका पिछले दिनों देहावसान हो गया. उन पर कृष्ण कुमार यादव की एक पोस्ट साभार प्रकाशित है-


(कई बार कुछ यादें मात्र अफसोसजनक ही रह जाती हैं. अभी कुछेक माह पूर्व ही डा.कुमार विमल जी से फोन पर बात हुई थी और मैंने वादा किया था कि अपनी कुछेक पुस्तकें उन्हें सादर अवलोकनार्थ भेजूंगा. डा. कुमार विमल जी के बारे में मुझे बिहार के ही एक जज डा. राम लखन सिंह यादव जी ने बताया था. बातों ही बातों में उन्होंने उनके विराट-व्यक्तित्व और कृतित्व की भी चर्चा की थी...साथ ही बीमारी के बारे में भी. पर तब मैंने यह नहीं सोचा था कि उसके बाद जब डा. विमल जी से बात करूँगा तो वह अंतिम होगी, खैर यही नियति थी और अचानक खबर मिली कि हिंदी साहित्य के जाने-माने कवि, लेखक और आलोचक अस्सी वर्षीय डा. कुमार विमल जी इस दुनिया में 26 नवम्बर, 2011 को नहीं रहे...मेरी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि !!)


हिंदी साहित्य के जाने-माने कवि, लेखक और आलोचक अस्सी वर्षीय डा. कुमार विमल जी इस दुनिया में 26 नवम्बर, 2011 को नहीं रहे. वे एक लम्बे समय से दिल की बीमारी से पीड़ित थे. उनके परिवार में पत्नी, चार बेटियां और दो पुत्र हैं।

बहुयामी व्यक्तित्व के धनी डा. विमल हिंदी काव्य लेखन में सौंदर्यबोध के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए हमेशा याद किये जाएंगे। 12 अक्टूबर 1931 को लखीसराय जिले के पचीना गांव में जन्मे विमल ने चालीस के दशक से लेखन जगत में पदार्पण किया। आलोचना पर उनकी पुस्तक ‘मूल्य और मीमांसा’ तथा कविता संग्रह में ‘अंगार’ तथा ‘सागरमाथा’ उनकी यादगार कृतियों में शुमार हैं। उनकी हिंदी में कई कविताओं का अंग्रेजी, बांग्ला, तेलुगू, मराठी, उर्दू और कश्मीरी सहित कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ था।

डा. विमल का कृतित्व वाकई विस्तृत फलकों को समेटे हुए था. यही कारण था कि उन्हें राजेंद्र शिखर सम्मान सहित उत्तर प्रदेश और बिहार के कई साहित्य सम्मान प्रदान किए गए। ज्ञानपीठ समिति ने भी उन्हें विशेष लेखन का सम्मान दिया था। मगध और पटना विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रह चुके डा. विमल कई प्रमुख संस्थाओं में भी उच्च पदों पर रहे। उन्होंने बिहार लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष, बिहार इंटरमीडिएट शिक्षा परिषद के अध्यक्ष और नालंदा खुला विश्वविद्यालय के कुलपति के पद को भी सुशोभित किया।
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डा- कुमार विमल

जन्मः- 12 अक्टूबर, 1931

साहित्यिक जीवनः- साहित्यिक जीवन का प्रारंभ काव्य रचना से, उसके बाद आलोचना में प्रवृति रम गई। 1945 से विभिन्न
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी और आलोचनात्मक लेख आदि प्रकाषित हो रहे हैं। इनकी कई कविताएं अंगे्रजी, चेक, तेलगु, कष्मीरी, गुजराती, उर्दू, बंगला और मराठी में अनुदित।

अध्यापनः- मगध व पटना विष्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक। बाद में निदेशक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्,पटना ।
संस्थापक आद्य सचिव, साहित्यकार कलाकार कल्याण कोष परिषद्, पटना नांलदा मुक्त विष्वविद्यालय में कुलपति

अध्यक्ष :-
बिहार लोक सेवा आयोग
बिहार विष्वविद्यालय कुलपति बोर्ड
हिन्दी प्र्रगति समिति, राजभाषा बिहार
बिहार इंटरमीडियएट शिक्षा परिषद्
बिहार राज्य बाल श्रमिक आयोग

सदस्य;-
ज्ञानपीठ पुरस्कार से संबंधित हिन्दी समिति
बिहार सरकार उच्च स्तरीय पुरस्कार चयन समिति के अध्यक्ष
साहित्य अकादमी, दिल्ली, भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर और भारत सरकार के कई मंत्रालयों की हिन्दी सलाहकार समिति के सदस्य रह चुके हैं।

सम्मान;-

कई आलोचनात्मक कृतियां, पुरस्कार-योजना समिति (उत्तर प्रदेश) बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना,राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह विशेष साहित्यकार सम्मान, हरजीमल डालमिया पुरस्कार दिल्ली, सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार, आगरा तथा बिहार सरकार का डा. राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान

प्रकाशनः-
अब तक लगभग 40 पुस्तकों का प्रकाशन

महत्वपूर्ण प्रकाशनः-

आलोचना में ‘‘मूल्य और मीमांसा‘‘, ‘‘महादेवी वर्मा एक मूल्यांकन’’, ‘‘उत्तमा‘‘ ।
कविता में – ‘‘अंगार‘‘, ‘‘सागरमाथा‘‘।
संपादित ग्रंथ- गन्धवीथी (सुमित्रा नंदन पंत की श्रेष्ठ प्रकृति कविताओं का विस्तृत भूमिका सहित संपादन संकलन), ‘‘अत्याधुनिक हिन्दी साहित्य‘‘ आदि।


-कृष्ण कुमार यादव

रविवार, 4 दिसंबर 2011

चन्द्रवंश की शाखाएं तथा उपशाखाएँ

(माना जाता है कि यदुवंशी चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं. इस चन्द्रवंश की भी कई शाखायें तथा उपशाखायें हैं. राजवत एस. सिंह द्वारा प्रस्तुत यह आलेख साभार देखें-

चन्द्रवंश की शाखायें तथा उपशाखायें


1.सोमवंशी क्षत्रिय -
गौत्र - अत्रि। प्रवर - तीन - अत्रि, आत्रेय, शाताआतप। वेद - यजुर्वेद। देवी - तहालक्ष्मी। नदी - त्रिवेणी।


2.यादव क्षत्रिय - चन्द्रवंश की शाखा।
गौत्र - कौन्डिय। प्रवर - तीन - कौन्डिन्य, कौत्स, स्तिमिक। देवी - जोगेश्वरी। वेद - यजुर्वेद। नदी - यमुना।
महाराजा ययाति के ज्येष्ठ पुत्र यदु के नाम से यदु वंश या यादव वंश का नामकरण हुआ। इसी काल में भगवान कृष्ण और बलराम का जन्म हुआ था।


3.भाटी या जरदम क्षत्रिय - चन्द्र वंश की एक शाखा।
ये लोग अपने को कृष्ण का वंशज मानते हैं। इस शाखा में कभी भाटी नाम के प्रतापी राजा हुए थे। इन्ही के नाम पर भाटी वंश चल पडा। जैसलमेर का दुर्ग इसी वंश के राजाओं ने बनवाया है।


4.जाडेजा क्षत्रिय - चन्द्र वंश की एक शाखा।
इस शाखा के लोग अपने को कृष्ण के पुत्र साम्ब का वंशज मानते हैं


5.तोमर क्षत्रिय - चन्द्र वंश की एक शाखा। इन्हे तुर या तंवर भी कहते हैं।
गौत्र - गार्ग्य। प्रवर - तीन - गार्ग्य, कौस्तुभ, माण्डव्य। वेद यजुर्वेद। देवी - योगेश्वरी, चिकलाई माता।
तोमर वंश के लोग अपने को पाण्डु का वंशज मानते हैं। जन्मेजय ने नागवंश को समूल नष्ट करने का व्रत लिया था। उनके इस आचरण से नागवंश के महर्षि आस्तिक बहुत अप्रसन्न हुए। जन्मेजय ने महर्षि आस्तिक से क्षमा याचना की और प्रायश्चित के लिए यज्ञ सम्पन्न हुआ। जिसके अधिष्ठाता महर्षि तुर थे। इन्ही महर्षि तुर के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए जन्मेजय के वंशज अपने को तुर क्षत्रिय कहने लगे

डा. देव सिंह निर्वाण ने एक आलेख में तोमर क्षत्रियों की 25 शाखाओं का उल्लेख किया है।

1 सोलंकी क्षत्रिय -
गौत्र - भारद्वाज। प्रवर - तीन - भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद - यजुर्वेद। देवी - काली।
क्षत्रिय वीर
1.रावल बप्पा (कालभोज) - 734 ई० मेवाड राजय के गहलौत शासन के सूत्र्धार।
2.रावल खुमान - 753 ई०
3.मत्तट - 772 - 793 ई०
4.भर्तभट्ट -793 - 813 ई०
5.रावल सिंह - 813 - 828 ई०
6.खुमाण सिंह - 828 - 853 ई०
7.महायक - 853 - 878 ई०
8.खुमाण तृतीय - 878 - 903 ई०
9.भर्तभट्ट द्वितीय - 903 - 951 ई०
10.अल्लट - 951- 971 ई०
11.नरवाहन - 971 - 973 ई०
12.शालिवाहन - 973 - 977 ई०
13.शक्ति कुमार - 977 - 993 ई०
14.अम्बा प्रसाद - 993 - 1007 ई०
15.शुची वर्मा - 1007 - 1021 ई०
16.नर वर्मा - 1021 - 1035 ई०
17.कीर्ति वर्मा - 1035 - 1051 ई०
18.योगराज - 1051 - 1068 ई०
19.वैरठ - 1068 - 1088 ई०
20.हंस पाल - 1088 - 1103 ई०
21.वैरी सिंह - 1103 - 1107 ई०
22.विजय सिंह - 1107 - 1127 ई०
23.अरि सिंह - 1127 - 1138 ई०
24.चौड सिंह - 1138 - 1148 ई०
25.विक्रम सिंह - 1148 - 1158 ई०
26.रण सिंह - 1158 - 1168 ई०
27.क्षेम सिंह - 1168 - 1172 ई०
28.सामंत सिंह - 1172 - 1179 ई०

•क्षेम सिंह के दो पुत्र सामंत और कुमार सिंह। ज्येष्ठ पुत्र सामंत मेवाड की गद्दी पर सात वर्ष रहे क्योंकि जालौर के कीतू चौहान मेवाड पर अधिकार कर लिया। सामंत सिंह अहाड की पहाडियों पर चले गये। इन्होने बडौदे पर आक्रमण कर वहां का राज्य हस्तगत कर लिया। लेकिन इसी समय इनके भाई कुमार सिंह पुनः मेवाड पर अधिकार कर लिया।

•कुमार सिंह - 1179 - 1191 ई०
•मंथन सिंह - 1191 - 1211 ई०
•पद्म सिंह - 1211 - 1213 ई०
•जैत्र सिंह - 1213 - 1261 ई०
•तेज सिंह -1261 - 1273 ई०
•समर सिंह - 1273 - 1301 ई०

समर सिंह का एक पुत्र रतन सिंह मेवाड राज्य का उत्तराधिकारी हुआ और दूसरा पुत्र कुम्भकरण नेपाल चला गया। नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं।


•रतन सिंह ( 1301-1303 ई० ) - इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया। प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया। गोरा - बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।


•राजा अजय सिंह ( 1303 - 1326 ई० ) - हमीर राज्य के उत्तराधिकारी थे पर्न्तु अवयस्क थे। इसलिए अजय सिंह गद्दी पर बैठे।


•महाराणा हमीर सिंह ( 1326 - 1364 ई० ) - हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारं किया। इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं।


•महाराणा क्षेत्र सिंह ( 1364 - 1382 ई० ) -


•महाराणा लाखासिंह ( 1382 - 11421 ई० ) - योग्य शासक तथा राज्य के विस्तार करने में अहम योगदान। इनके पक्ष में ज्येष्ठ पुत्र चुडा ने विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा की और पिता से हुई संतान मोकल को राज्य का उत्तराधिकारी मानकर जीवन भर उसकी रक्षा की।


•महाराणा मोकल ( 1421 - 1433 ई० ) -


रविवार, 27 नवंबर 2011

बॉक्सिंग के रिंग का नया नायक : विकास कृष्ण यादव

प्रतिभा कभी उम्र की मोहताज नहीं होती। इस कहावत को मुक्केबाज विकास कृष्ण यादव ने जहां एशियाई खेलों में मात्र 18 वर्ष की आयु में स्वर्ण पदक जीत कर सही साबित किया था वहीं अब उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में ही विश्व चैम्पियनशिप में भी कांस्य पदक जीत कर खुद को बॉक्सिंग के रिंग का नया नायक साबित कर दिया है। विकास एशियाड में बॉक्सिंग का गोल्ड मैडल जीतने वाले अब तक के सबसे कम उम्र के मुक्केबाज हैं।

विकास अभी हाल ही में अजरबैजान के बाकू में हुई विश्व मुक्केबाजी प्रतिस्पर्धा में कांस्य पदक लाने वाले इकलौते भारतीय मुक्केबाज हैं। उन्होंने लंदन में होने वाले ओलम्पिक खेलों के लिए भी क्वालिफाई कर लिया और ओलम्पिक में अपने मुक्के का दम दिखाने के लिए अभी से तैयारियों में जुट गए हैं।

इस युवा प्रतिभावान मुक्केबाज की अब तक की उपलब्धियां भी कम नहीं हैं। विकास यादव यूथ एशियन मुक्केबाजी में स्वर्ण पदक पर कब्ज़ा कर सर्वश्रेष्ठ मुक्केबाज का खिताब जीत चुके हैं। यूथ ओलम्पिक में रजत पदक जीत वे 2010 के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय मुक्केबाज अन्डर 17 और अन्डर 19 में अपने भार वर्ग में विश्व चैम्पियन भी रह चुके हैं। गौरतलब है कि इस युवा मुक्केबाज ने 12 साल बाद एशियाई खेलों में भारत को स्वर्ण पदक दिलाया था। भारत ने 1998 में डिंको सिंह के स्वर्ण पदक के बाद से एशियाई खेलों में कोई सोने का तगमा नहीं जीता था। 12 साल बाद पदक का ये अकाल विकास यादव ने खत्म किया। जैसे ही हरियाणा का लाडला विकास यादव पंचों के जौहर दिखाने के लिए रिंग में उतरता है तो लाखों खेल प्रेमियों की निगाहें टेलीविजन पर लग जाती हैं।

साधारण किसान परिवार मेें 10 फरवरी, 1992 को हिसार जिले के गांव सिंघवा में कृष्ण यादव व श्रीमती दर्शना के घर पैदा हुए विकास भिवानी के वैश्य कॉलेज के विद्यार्थी हैं और आजकल उनका परिवार भिवानी के सेक्टर 13 में रहता है। विकास के पिता कृष्ण यादव बिजली निगम में स्टैनोग्राफर के पद पर कार्यरत हैं और मां श्रीमती दर्शना गृहणी हैं। मुक्केबाजी को कैरियर बनाने के सवाल पर विकास का कहना है कि वह एक दिन भिवानी स्टेडियम में घूमने गए तो वहां बच्चों और युवाओं को बॉक्सिंग का अभ्यास करते देखा और उसके मन में भी बॉक्सिंग सीखने की ललक पैदा हुई। इस बारे में जब उसने घर आकर मां-पिताजी से बात की तो उन्होंने भी सहमति दे दी। शौकिया शुरू किये बॉक्सिंग के अभ्यास में जब विकास अपने मुक्के का जौहर दिखाने लगा तो उसे कोच और परिवार ने प्रोत्साहित किया। अपनी कड़ी मेहनत, परिवार के समर्थन और कोच के कुशल निर्देशन के परिणाम स्वरूप बहुत छोटी उम्र में ही उसने 17 वर्ष से भी कम आयु में यूथ विश्व चैम्पियन बनकर अपनी प्रतिभा का परिचय दे दिया था।

इसके बाद तो उन्होंने मुड़ कर ही नहीं देखा। विकास भारत के एकमात्र ऐसे मुक्केबाज हैं जिन्होंने एशियाड में गोल्ड और विश्व चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीत कर अपने देश को गौरवान्वित किया है।

विकास कृष्ण का लक्ष्य अपने देश के लिए ओलम्पिक में सोना जीतने का है और इसके लिए अभी से तैयारी में जुट चुके हंै। उनके दादा सरजीत सिंह का कहना है कि उन्हें लेश मात्र भी शक नहीं है कि उनका पोता देश के लिए ओलम्पिक में स्वर्ण जीतेगा। विकास के माता-पिता का कहना है कि उनका बेटा इरादे का पक्का है। खाने में उसे चूरमा और गोंद के लड्डू बहुत पसंद हैं। अभी उनकी उम्र महज 19 साल है और वे कड़ी मेहनत से ओलम्पिक की तैयारी में जुटे हुए हैं। आशा है वे देश के लिए ओलम्पिक में भी पहला स्वर्ण लाने में सफल रहेंगे।

बॉक्सिंग-के-रिंग-का-नया-ना/">साभार : रघुविन्द्र यादव : दैनिक ट्रिब्यून

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

प्रेम प्रकाश यादव बने हरियाणा की विकलांग क्रिकेट टीम के कप्तान

प्रेम प्रकाश यादव को हरियाणा की विकलांग क्रिकेट टीम का कप्तान चुना गया है। प्रेम प्रकाश की अगुवाई में टीम अगले महीने में बनारस और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की विकलांग क्रिकेट टीम के साथ प्रतियोगिता में भाग लेगी। प्रेम प्रकाश के कप्तान बनने पर उसके साथियों में खुशी का माहौल है।

प्रेम प्रकाश का जन्म चरखी दादरी में 19 मार्च 1974 को हुआ था। जब वह चार वर्ष का था, तब उसके पैर में पोलियो की शिकायत का पता चला। उसी दौरान हरियाणा बिजली बोर्ड में कार्यरत उनके पिता का तबादला पलवल हो गया। इसके बाद यादव परिवार पलवल का ही बन कर रह गया। प्रेम प्रकाश को बचपन से ही क्रिकेट खेलने का शौक था। वह स्कूल में अपने दोस्तों के साथ काफी क्रिकेट खेलता था। क्रिकेट के जुनून ने उसे इस मुकाम पर ला दिया कि उसे क्रिकेट खेलने के अलावा कुछ नहीं सूझता। इतना ही नहीं उसमें गेंदबाजी के गुर भी कूट-कूट कर भरे हुए हैं। वर्ष 1997 में उसे पहली बार पता चला कि हरियाणा में शारीरिक रूप से विकलांग क्रिकेट भी खेला जाता है। इसके चलते उसने विकलांग खेलों के जन्मदाता प्रवीण बहल से संपर्क बनाया। प्रेम के बेहतरीन खेल के चलते उसे फरीदाबाद जिले की टीम में जगह दी। प्रेम का खेल लोगों का पसंद आया, जिस कारण उसे जिले की कमान सौंप दी गई। दिनोंदिन खेल में बेहतरीन प्रदर्शन करने पर प्रेम को अब हरियाणा की विकलांग क्रिकेट टीम का कप्तान चुना गया है। प्रेम का कहना है कि उसने पहले ही टूर्नामेंट में लगातार दो बार हैट्रिक ली थी, जो कि मुंबई व मध्यप्रदेश के खिलाफ दी। उसने अब तक 16 राष्ट्रीय क्रिकेट प्रतियोगिताओं में भाग लिया है, जिनमें उसे आठ बार मैन आफ दो मैच चुना गया है, जबकि दो बार बार बेस्ट प्लेयर आफ टूर्नामेंट से नवाजा गया है।

साभार : जागरण








मंगलवार, 22 नवंबर 2011

गायक से अभिनेता बने खेसारी लाल यादव का जलवा

बिहार के सिनेमाघरों में इन दिनों गायक से अभिनेता बने खेसारी लाल यादव का जलवा है। खेसारीलाल यादव की पहली भोजपुरी फिल्म ‘साजन चले ससुराल’ बिहार में सफलता का परचम लहरा रही है। बिहार के छपरा, सिवान के रहनेवाले खेसारी लाल यादव ने "साजन चले ससुराल" में एक सीधे साधे नौजवान की भूमिका निभाई है। बिहार के 21 सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई ‘साजन चले ससुराल’ अपने तीसरे हफ्ते में भी बढ़िया कमाई कर रही है। गौरतलब है की खेसारी लाल यादव को कई फिल्मों के ऑफर मिले थे पर खेसारीलाल ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत प्रसिद्द फिल्म निर्माता आलोक कुमार के साथ की। उनके द्वारा गाये गये गाना ‘भईया अरब गइले ना...’ को भी दर्शकों की तारीफ मिल रही है। माना जा रहा है कि जिस हिसाब से खेसारी लाल यादव का सिक्का बिहार में चल रहा है, उस हिसाब से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि भोजपुरी गायक से सफल भोजपुरी नायक बनने के ट्रेंड को खेसारी लाल यादव ने ज़िंदा रखा है।

स्रोत : शशिकांत सिंह, रंजन सिन्हा : BHOJPURIYA CINEMA

आशा यादव को PHD की उपाधि

राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा जखराना निवासी आशा यादव को पीएचडी की डिग्री प्रदान की गई है। आशा यादव का शोध विषय ''किशोर विद्यार्थियों की शैक्षणिक उपलब्धि का अभिभावक व बालक संबंध अकादमिक दुश्चिन्ता अध्ययन आदतों'' के संदर्भ में अध्ययन रहा है। आशा यादव ने प्रोफेसर रीता अरोड़ा के निर्देशन में शोध विषय पूरा किया है। वर्तमान में आशा यादव खेतानाथ बीएड कालेज में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं। 'यदुकुल'; की तरफ से आशा यादव को बधाइयाँ !!

सोमवार, 21 नवंबर 2011

कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्

पुस्तक : कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्
लेखक : दिनकर जोशी
पृष्ठ : 130
मूल्य : $ 10.95
प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी
आईएसबीएन : 81-85826-60-9
प्रकाशित : जनवरी ०१, २००४
पुस्तक क्रं : 5534
मुखपृष्ठ : सजिल्द


सारांश:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश - कृष्ण विचलित नहीं हुए। अपने खुद के वचन की यथार्थता मानो सहज भाव से प्रकट होती है। नाश तो सहज कर्म है। यादव तो अति समर्थ हैं; फिर कृष्ण-बलराम जैसे प्रचंड व्यक्तियों से रक्षित हैं- उनका नाश किस प्रकार हो ? उनका नाश कोई बाह्य शक्ति तो कर ही नहीं सकती। कृष्ण इस सत्य को समझते हैं और इसीलिए माता गांधारी के शाप के समय केवल कृष्ण हँसते हैं। हँसकर कहते हैं-‘माता ! आपका शाप आशीर्वाद मानकर स्वीकार करता हूँ; कारण, यादवों का सामर्थ्य उनका अपना नाश करे, यही योग्य है। उनको कोई दूसरा परास्त नहीं कर सकता।’ कृष्ण का यह दर्शन यादव परिवार के नाश की घटना के समय देखने योग्य है। अति सामर्थ्य विवेक का त्याग कर देता है और विवेकहीन मनुष्य को जो कालभाव सहज रीति से प्राप्त न हो, तो जो परिणाम आए वही तो खरी दुर्गति है। कृष्ण इस शाप को आशीर्वाद मानकर स्वीकार करते हैं। इसमें ही रहस्य समाया हुआ है.

इसी पुस्तक से
न केवल भारतीय साहित्य में अपितु समग्र विश्व साहित्य में श्रीकृष्ण जैसा अनूठा व्यक्तित्व कहीं पर उपलब्ध नहीं है। संसार में लोकोत्तर प्रतिभाएँ अगण्य हैं; परंतु पूर्व पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के अलावा कोई नहीं है। श्रीकृष्ण के किसी निश्चित रूप का दर्शन करना असंभव है। बाल कृष्ण से लेकर योगेश्वर कृष्ण तक इनके विभिन्न स्वरूप हैं। प्रस्तुत पुस्तक में श्रीकृष्ण के चरित्र को बौद्धिक स्तर से समझने का प्रयास किया गया है।
विश्वास है, पाठकों को यह प्रयास पसंद आएगा।

अदृश्य का दर्शन

गांधीजी ने एक बार कहीं कहा कि प्रत्येक हिंदू को ‘रामायण’ और ‘महाभारत’–ये दो धर्मग्रंथ अवश्य पढ़ने चाहिए। यह तो स्पष्ट ही है कि गांधीजी का यह कथन धार्मिक भावना से प्रेरित है; किन्तु जिस अर्थ में ‘बाइबल’, ‘कुरान’ अथवा अन्य धर्मग्रंथों को धार्मिक कहा जाता है, उस अर्थ में‘रामायण’ और ‘महाभारत’ को धर्मग्रंथ नहीं कहा जा सकता। किसी खास धर्म का संस्थापक अपने धर्म के उपदेश के लिए उसके अनुयायियों के सामने धर्म संबंधी मान्यताओं को स्पष्ट करता है, और कालांतर में उन्हें लिपिबद्ध करने से जिस प्रकार अन्य धर्मग्रंथ बने हैं, उस प्रकार ‘रामायण’ एवं ‘महाभारत’ धर्मग्रंथ नहीं बने हैं।

ये दोनों ग्रंथ तत्कालीन व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह के आसपास रचित होने पर भी व्यक्तियों तक सीमित नहीं रहे हैं। उनका समाज, उनके प्रश्न, उनके पात्र, उनका घटना-चक्र-यह सब एक विशेष समाज अथवा समष्टि की बात एक निश्चित भूगोल के दायरे में रहकर भले ही करते हों, वास्तव में वे किसी भी समय, किसी भी समाज में और किसी भी भू-प्रदेश के लिए उतने ही सत्य हैं। अत: गांधीजी के उक्त कथन को थोड़े से विशाल परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है कि ‘मनुष्य’ नाम की वस्तु को समझने में जिस किसी की रुचि हो, ऐसे प्रत्येक समझदार मनुष्य को इन दो ग्रंथों को अवश्य पढ़ना चाहिए।

इन दोनों ग्रंथों का ताना-बाना ऐसा है कि इन दोनों के इतने अधिक पाठांतर हैं कि इस बारे में ढेर सारे मत-मतांतर हैं। यह कह पाना कठिन है कि इनमें असली अंश कौन-सा है और प्रक्षिप्त रूप में बाद में जोड़ा हुआ अंश कितना है। महाभारत के तीन स्तर हैं, इस बारे में लगभग सर्व सहमति है; किंतु इन तीनों स्तरों में कितनी ही बातें एक स्तर में से दूसरे स्तर में तथा दूसरे स्तर में से तीसरे स्तर में और वहाँ से फिर पहले स्तर में आगे-पीछे होती रहती हैं। इन तीनों बातों में असलियत को अलग खोज निकालने की दृष्टि से पुणे के ‘भांडारकर पौर्वात्य संस्थान’ ने चालीस वर्षों तक सतत परिश्रम करके महाभारत का प्रामाणिक पाठ तैयार किया है और इसी प्रकार बड़ौदा के ‘महाराजा सयाजी राव विश्वविद्यालय’ ने चौबीस वर्षों के श्रमपूर्ण संशोधन और अध्ययन के बाद रामायण का प्रामाणिक पाठ तैयार किया है।

किंतु इससे यह नहीं हुआ कि इन पाठों को आखिरी मानकर सबने स्वीकार कर लिया हो और उनके अलावा समस्त उपलब्ध पाठ सदा के लिए विस्मृति के गर्त में चले गए हों। विद्वानों, बौद्धिकों तथा अति बौद्धिकों में इन दोनों ग्रंथों के असंख्य पात्रों और प्रसंगों के बारे में अविरल विवाद चलता ही रहता है। चलता ही रहेगा। इन दोनों ग्रंथों में जो कुछ लिखा गया है, वह शत-प्रतिशत सत्य है और जो बातें सामान्य बुद्धि को सहज रीति से मान्य नहीं हो सकतीं, उनको भी पूर्ण श्रद्धा से स्वीकार करनेवाले भक्त मौजूद हैं। उदाहरण के लिए, कृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियां और नौ लाख अस्सी हजार पुत्र होने के तथ्य को प्रत्यक्ष रूप में इन महाग्रंथों के अक्षरों में कोरी आँख से देखना संभव नहीं है और बाइनाक्यूलर की सहायता से पढ़नेवाले कितने ही विद्वान इन कथनों के असामान्य अर्थ भी निकालते हैं। उदाहरण के लिए, एक विदुषी महिला ने लिखा है कि युधिष्ठिर कुंती और विदुर के समागम से उत्पन्न हुए थे। इस बात के समर्थन में वह लिखती हैं-‘कुंती अधिकतर समय हस्तिनापुर में विदुर के घर में ही रहती थीं और व्यास ने एक बार कहा है कि मेरे से जो धर्म विदुर में उत्पन्न हुआ, उस धर्म का विदुर ने युधिष्ठिर में विस्तार किया। ‘रामायण के बारे में भी ऐसा ही हुआ है। वाल्मीकि ने लिखा है कि ‘हनुमान का आवास स्त्रियों से शोभायमान था, हनुमान ब्रह्मचारी नहीं थे।’ एक विद्वान ने लिखा है कि ‘यहाँ तक का अर्थ-घटन अधूरा है। बंबई में वडाला के हनुमानजी का पूजन गर्भवती स्त्रियाँ पुत्र-प्राप्ति के लिए करती हैं, यह इसका सूचक है।’

जो बात पात्रों और प्रसंगों के बारे में है, वही भूगोल के बारे में भी है। कल तक सिलोन अथवा श्रीलंका को रावण की राजधानी मानने के बाद आज मध्य प्रदेश के एकाध गाँव को रामायण की लंका के रूप में सिद्ध करने का संशोधन हुआ ही है। आखिर में उड़ीसा के किसी गाँव को ही रावण की राजधानी होने की बात भी पढ़ी है। कृष्ण की मूल द्वारका कौन-सी है। इस बारे में विवादों का कोई अंत नहीं आया है और कुरुक्षेत्र के मैदान में जहाँ कृष्ण ने अर्जुन को ‘गीता’ का उपदेश दिया, उस खास स्थान को ढूँढ़ निकालने के लिए हरियाणा सरकार ने जिस पुरस्कार की घोषणा की थी, उसे आज तक किसी ने प्राप्त नहीं किया है।
महाभारत जैसा कुछ घटित ही नहीं हुआ और यह एक तुच्छ कलह की कोरी कवि कल्पना है, यह माननेवाले पश्चिम के विद्वान ‘वेखर’ और ‘लोसन’ मुख्य हैं। महाभारत को वे महाकाव्य के रूप में अवश्य स्वीकार करते हैं; किंतु उसकी ऐतिहासिकता को अस्वीकार करते हैं। महाभारत और रामायण को पश्चिम की प्रजा के सामने प्रस्तुत करने के लिए होमर के ‘इलियड’ और ‘ओडीसी’ का उदाहरण पेश किया जाता है। यह कोई गलत नहीं है। किंतु यह गिरनार के सामने अँगुली दिखाकर हिमालय के बारे में ज्ञान कराने जैसा दुष्कर कार्य है। होमर का अथवा उसकी रचना का महत्त्व कम करने की यह चेष्टा नहीं है; किंतु हिमालय की दिव्यता और उसके सौंदर्य की झाँकी कराने का प्रयास है। गिरनार की अपनी गूढ़ता है तो हिमालय की अपनी भव्यता है। विश्व साहित्य में रामायण और महाभारत का जो स्थान है, उनकी तुलना किसी अन्य ग्रंथ से नहीं हो सकती। रामायण और महाभारत के बारे में इतनी प्रस्तावित चर्चा के बाद अब हम अपनी अभिप्रेत मूल बात पर आते हैं। यहाँ मैंने जो लिखने की बात सोची है, वह सब श्रीकृष्ण के संबंध में ही है। स्वाभाविक रूप में इसके कारण महाभारत केंद्र स्थान में रहेगी; हालाँकि वेदव्यास ने महाभारत कोई कृष्ण की कथा कहने के लिए नहीं लिखी है।

कृष्ण तो इस महाग्रंथ के एक पात्र मात्र हैं और द्रौपदी स्वयंवर के पहले वह कहीं दिखाई भी नहीं देते। कृष्ण के बारे में आज तक सैकड़ों लेखकों ने सैकड़ों ग्रंथ लिखे हैं: किन्तु कोई नहीं कह सकता कि उनके बारे में सबकुछ लिखा जा चुका है। अभी सैकड़ों वर्षों तक लिखते रहें तो भी यह पूरा होने वाला नहीं है। थोड़े वर्षों पहले हिमालय यात्रा में बारह हजार फीट की ऊँचाई पर एक साधु ने हिमालय की पहचान कराते हुए एक सुंदर बात कही थी-‘हिमालय मानव के गर्व का खंडन करता है। पाँच हजार फीट की ऊँचाई पर बड़ी मुश्किल से पहुँचते हैं और वहीं उससे भी ऊँचा शिखर आपकी प्रतीक्षा में खड़ा नजर आता है। इस शिखर पर भी आप चढ़ जाएँ और आपको प्रतीत हो कि आपने दस हजार फीट ऊंचे शिखर पर विजय प्राप्त कर ली है, तब आपको एक अन्य दस हजार फीट ऊँचा शिखर यह प्रतीति कराता है कि आप अभी तलहटी में ही खड़े हैं।’ जो बात साधु ने हिमालय के बारे में कही थी, वही महाभारत पर अक्षरश: लागू होती है, कृष्ण के विषय में तो विशेष रूप से।

आभार है नानाभाई भट्ट का, जिन्होंने लगभग चार दशाब्दी पहले पहली बार कृष्ण का परिचय कराया था। चार दशाब्दी पूर्व का यह परिचय तीन वर्ष पहले लिखी एक नकल कथा की पूर्व तैयारी के समय इतना प्रगाढ़ हो गया कि उसके बाद मैंने कृष्ण के बारे में, जो भी साहित्य उपलब्ध था उसे, पढ़ना शुरू कर दिया। जैसे-जैसे देखता गया, विचार करता गया, उन सबको प्रकट विचारण के रूप में यहाँ लिपिबद्ध किया है। इसे कोई संशोधन न कहें, मौलिक अर्थ-गहन अथवा विद्वता जैसे भारी-भरकम शब्दों से भी न पहचानें-यह तो एक दर्शन है, मात्र कृष्ण दर्शन। मैंने यह दर्शन किया है, इसमें सहभागी होने का सहृदयों को एक निमंत्रण है।

ऋग्वेद संहिता में कृष्ण के नाम का उल्लेख जरूर मिलता है; किंतु यह नाम तो उसमें एक असुर राजा का है। बौद्ध और जैन धर्मग्रंथ तो कृष्ण को बिलकुल अलग रीति से पहचानते हैं। जिस कृष्ण का हमें यहाँ दर्शन करना है, वह कृष्ण तो मुख्य रूप से महाभारत के हैं। हरिवंशपुराण के हैं, श्रीमद्भागवत के हैं और विष्णुपुराण एवं ब्रह्मवैवर्तपुराण के मुख्य रूप से, तथा पद्मपुराण अथवा वायुपुराण जैसे किसी पुराण के अंश रूप हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि यह दर्शन भी संपूर्ण है। लेखक की दृष्टि आंशिक हो सकती है कहीं रुचि-भेद से प्रेरित दृष्टि भी हो सकती है और कहीं इस दृष्टि की साहसिक मर्यादा भी हो सकती है।
‘श्रीकृष्ण-डार्लिंग ऑफ ह्युमेनिटी’ नामक एक ग्रंथ में उसके लेखक ए.एस.पी.अय्यर ने एक सरस कथा लिखी है। एक अति बुद्धिशाली व्यक्ति को कृष्ण के अस्तित्व के बारे में शंका थी। उन्होंने एक संत के सामने अपनी शंका प्रस्तुत की-
‘मुझे प्रतीत होता है कि कृष्ण कोरी कल्पना का पात्र है। वास्तव में ऐसा कोई पुरुष हुआ ही नहीं।’ उन्होंने कहा।
‘यह बात है ? क्या आपका वास्तव में अस्तित्व है ?’ संत ने जवाबी प्रश्न किया।
‘अवश्य।’ उस विद्वान ने विश्वासपूर्वक कहा।
‘आपको कितने मनुष्य पहचानते हैं ?’
‘कम-से-कम पाँच हजार तो अवश्य। मैं प्रोफेसर हूँ, विद्वान हूँ, लेखक हूँ, आदि।’
‘अच्छा-अच्छा ! अब यह कहिए कि कृष्ण को कितने मनुष्य पहचानते हैं ?’
‘करोड़ों, कदाचित् अरबों भी हो सकते हैं।’ विद्वान ने सिर खुजलाया।
‘और यह कितने वर्षों से ?’

‘कम-से-कम इस काम को तीन हजार वर्ष तो हुए ही हैं।’
‘अब मुझे यह कहिए कि चालीस वर्ष की आपकी आयु में जो पाँच हजार मनुष्य आपको पहचानते हैं, उनमें से कितने आपको पूजते हैं ?’
‘पूजा ? पूजा किसकी ? मुझे तो कोई पूजता नहीं ?’
‘और कृष्ण को तीन हजार वर्षों बाद भी करोड़ों मनुष्य अभी भी पूजते हैं। अब आप ही निर्णय करें कि वास्तव में आपका अस्तित्व है अथवा कृष्ण का।’
जिनके स्मरण मात्र से अस्तित्व का अहंकार भी मिट जाता है, ऐसे कृष्ण के दर्शन की बात आगे करेंगे।

राज्यविहीन यादव

कृष्ण जन्म के समय के तत्कालीन आर्यावर्त्त पर एक विहंगम दृष्टि डालें। सप्त सिंधु से लगाकर गंगा-यमुना के विशाल, फलद्रुम मैदानों में आर्य फैल चुके थे। यह सही है कि रामायण काल महाभारत के काल के पहले का है; किंतु रामायणकालीन आर्य विंध्य को पार करके दक्षिण में गए थे, ऐसी व्यापक मान्यता है। इसके विपरीत, महाभारत काल रामायण काल के पीछे का काल होने पर भी इस समय के पात्र कहीं भी दक्षिण में गए हों, इसका विश्वसनीय उल्लेख नहीं मिलता। सिंधु नदी के पश्चिम में फैला हुआ सिंध का आर्यावर्त्त के तत्कालीन इतिहास में थोड़ा भी उल्लेखनीय भाग नहीं है। रामायण में दक्षिण का जो उल्लेख है, वह विश्वसनीय नहीं और लंका आज का सिलोन नहीं, प्रत्युत मध्य प्रदेश का एक गाँव है। इस मान्यता के मूल में, यह बात है कि रामायण के पीछे कितने ही लंबे समय बाद हुए महाभारत के पात्र दक्षिण से अपरिचित हैं। इसमें निहित तर्क को स्वीकार किए बिना चल नहीं सकता। पांडवों के वनवास की अवधि में अर्जुन तीर्थाटन करते हुए, कृष्ण अपनी अपूर्व भूमिका में कभी भी दक्षिण के किसी स्थान में गए नहीं, अत: आर्यावर्त्त था विंध्य के उत्तर का भूखंड, पश्चिम में द्वारका, पूर्व में प्राग्ज्योतिषपुर अर्थात् आज का असम और उत्तर में सिंधु नदी के आसपास का क्षेत्र-इसमें हिमालय का समावेश अवश्य हो जाता है। गांधार अर्थात् आज का अफगानिस्तान विदेश है और सिंध का राज्य आर्यावर्त्त तथा गांधार के बीच आज की भाषा में एक ‘बफर स्टेट’ होगी, ऐसी संभावना है।

इस आर्यावर्त्त में फैल चुके आर्य दल अपने-अपने भूखंडों की सीमाएँ निर्धारित कर चुके थे और अपनी सामर्थ्य एवं शक्ति से इन भूखंडों के राजा सिंहासनारूढ़ हो चुके थे। गणतंत्रों और आर्य दलों के बड़ों की सलाह से चलने वाले शासन तेजी से गत काल की घटना बन चुके थे। हस्तिनापुर, मगध, चेदि, प्राग्ज्योतिषपुर, कलिंग आदि अनेक राज्य अस्तित्व में आ चुके थे। उस समय अनेक राज्य अवश्य थे; किंतु इनमें कोई साम्राज्यवादी कल्पना अभी दृढ़ नहीं हुई थी। समर्थ राजा पड़ोसी राज्य को परास्त करने में गौरव अवश्य अनुभव करते; किंतु यह तो मात्र आधिपत्य को स्वीकार कराने के अहं को संतोष देने तक ही सीमित था। किसी राज्य को खालसा करके उस भूमि को पचा लेने का कार्य पराक्रम नहीं प्रत्युत्त निंद्य गिना जाता था। यह अधर्म था, अक्षम्य था, तिरस्कृत था। साम्राज्यवादी मानस का उदय मानव सहज था; कारण स्वयं जिसे सामर्थ्य से प्राप्त किया हो, उसका उपभोग न करके तत्कालीन नीति की मर्यादाओं के अंतर्गत उसका त्याग कर देना समर्थ मनुष्य को पसंद आनेवाली बात न थी और इसीलिए कहा जा सकता है कि ये साम्राज्यवादी परिबल अपने उदय काल में थे। मगध का जरासंध इसका विशेष उदाहरण था।



इस संदर्भ में कुरुक्षेत्र के महायुद्ध के अंत में महर्षि वेदव्यास विजेता राजा युधिष्ठिर को कहते हैं-‘हे युधिष्ठिर ! जो-जो राजा इस युद्ध में मारे गए हैं, उनकी रानियों को सांत्वना देने के लिए दूत भेजो, उनके पुत्रों का राज्याभिषेक करो। यदि पुत्र न हो और रानी सगर्भा हो तो राज्य के संचालन का काम सँभालने के लिए योग्य मनुष्यों को नियुक्त करो। (महाभारत, शांतिपर्व, 34/31-33)

इस तरह एक ओर स्थिर हो चुके राज्यों की विभावना, दूसरी ओर उदयमान हो रही साम्राज्यवादी विभावना और उनके बीच आर्यों के आगमन के साथ गणतंत्र की जो उज्जवल विभावना थी, उसको चरितार्थ करनेवाले अथवा चरितार्थ करने का संघर्ष करनेवाले यादव थे और इन यादवों का राज्य मथुरा था। यादव मथुरा के साथ और इस मथुरा का इतिहास इक्ष्वाकुवंश के राजा रामचंद्र के लघु भ्राता शत्रुघ्न के साथ जुड़ा हुआ है। यह उल्लेख मिलता है कि शत्रुघ्न ने मथुरा को जीता था और इक्ष्वाकुवंशियों को यहाँ बसाया था।
यादवों का गणतंत्र गणतंत्रों के इस इतिहास का अंतिम अवशेष प्रतीत होता है। कारण, कृष्ण के बिदा होने के पश्चात् राजाओं की परंपरा ही चली है। यादव राज्यविहीन थे, इस विषय में शिशुपाल ने राजसूय यज्ञ के समय कृष्ण की पूजा का विरोध करते हुए कहा था-‘यादवों में कोई राजा नहीं है तो फिर कृष्ण को किस प्रकार कहा जा सकता है ? कृष्ण राजा नहीं हैं, अत: राजा के रूप में उसे अर्घ्य नहीं दिया जा सकता।’

यादव राज्यविहीन थे, इस विषय में एक कथा भी है। शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी एवं असुर कन्या राजकुमारी शर्मिष्ठा-इन दो स्त्रियों के साथ संसार का भोग करते हुए राजा ययाति को गुरु शुक्राचार्य के शाप से असमय में ही वृद्धत्व प्राप्त हुआ। ययाति की देह वृद्ध हुई, किंतु मन अभी वृद्ध नहीं हुआ था। कृपा करके शुक्राचार्य ने शाप का निवारण का मार्ग सूचित किया-‘यदि तेरा वृद्धत्व तेरा कोई पुत्र ले तो उसके बदले में उसका यौवन तुझे मिल जाएगा।’
‘कामातुराणां न भयं लज्जा’ इस न्याय से विषयों के उपभोग के लिए लज्जा का त्याग करके ययाति ने अपने पुत्र यदु से कहा-‘पुत्र, मेरे वृद्धत्व के बदले में तुम अपना यौवन मुझे दे दो।’ यदु ने पिता की यह अनोखी माँग स्वीकार नहीं की। इससे रोष से भरे पिता ने पुत्र को शाप दिया-‘अराज्या ते प्रजामूढ़ा।’ (तेरे वारिस राज्यविहीन रहेंगे।) इस यदु के पुत्र ही यादव हुए और इसलिए ये यादव राज्यविहीन थे।
किंतु गणतंत्र कोई पूर्ण राज्य-पद्धति तो नहीं है। गणतंत्र की भी अपनी मर्यादाएँ हैं। ये मर्यादाएँ ही स्वेच्छाचारी राजाशाही और उसमें से विकसित होने वाले साम्राज्यवाद की जननी हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि जर्मनी में, आधुनिक काल में, हिटलर का विकास गणतांत्रिक पद्धति से ही हुआ था। यह तथ्य भी स्मरण रखने योग्य है कि हजारों वर्ष पहले तत्कालीन इतिहास में मथुरा के गणतंत्र में से कंस का विकास हुआ था।

यादव वंश के विविध कुलों-वृष्णि, भोजक, अंधक आदि–में पूजनीय माने जानेवाले वयोवृद्ध उग्रसेन, वसुदेव एवं अक्रूर-सब निर्वीर्य होकर इस तरह स्तब्ध हो गए कि उग्रसेन के पुत्र कंस ने मथुरा के गणतंत्र का नाश कर डाला; स्वयं अपने पिता उग्रसेन को कारागार में डाल दिया और वसुदेव को जेल में पहुँचा दिया। अक्रूर समय का अनुसरण करके कंस के अनुकूल हो गए। आज भी गणतंत्र जब किसी पाली हुई गाय के समान हो जाते हैं तो गणतंत्र के अनेक मुखिया उस तानाशाह की गाड़ी में बैठकर लाभ उठाते हुए दिखाई दे जाते हैं। अक्रूर उनके पूर्वज ही कहे जा सकते है। किंतु कंस ने ऐसा किस प्रकार किया ?
पिता उग्रसेन और यादव परिवारों के प्रति उग्र प्रकोप किसलिए ? स्वयं गणतंत्र निर्वीर्य किस प्रकार हो गया ? लाख रुपये के इस प्रश्न का जो उत्तर मिलता है, उसका मूल्य वर्तमान संदर्भ में भी कम नहीं है।

साभार : भारतीय साहित्य संग्रह

उमेश यादव के रुप में भारत को मिली रफ्तार एक्सप्रेस


उमेश यादव का नाम क्रिकेट-जगत में अब अपना डंका बजाने लगा है. भारतीय टीम ने वेस्टइंडीज को कोलकाता टेस्ट मैच में शिकस्त दे दी और इसी मैच ने भारतीय टीम को दिया नया सितारा, उमेश यादव. उमेश ने 144 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से गेंद फेंकीं. उमेश यादव को विदर्भ एक्सप्रेस का नाम दिया जा रहा है.

कोलकाता टेस्ट में वेस्टइंडीज के खिलाफ टीम इंडिया को जीत दिलाने में उमेश यादव का अहम रोल है. अपने दूसरे ही टेस्ट में 24 साल के उमेश यादव ने अपनी रफ्तार से वेस्टइंडीज के बल्लेबाजों को बेहाल कर दिया.ईडन गार्डन्स की फिरकी की मददगार विकेट पर भी उमेश यादव ने अपनी रफ्तार और सटीक लाइन से सात बल्लबाजों को पवेलियन भेजा.उमेश यादव ने कोलकाता टेस्ट में 24.3 ओवर की गेंदबाजी की जिसमें उन्होंने 103 रन देकर सात विकेट लिए. पहली पारी में उमेश ने सिर्फ सात ओवर की गेंदबाजी में 23 रन देकर तीन विकेट लिए. जबकि दूसरी पारी में उमेश ने 17.3 ओवर की गेंदबाजी में 80 रन देकर चार बल्लेबाजों को पवेलियन भेजा.

इस मैच में उमेश ने टीम इंडिया को तब सफलता दिलाई जब उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी. दोनों पारियों में उमेश ने भारत को पहली सफलता दिलाई. वहीं जब मैच के चौथे दिन ब्रावो और चंद्रपॉल की जोड़ी भारतीय जीत की राह में रोड़ा बन रही थी तब उमेश ने चंद्रपॉल को बोल्ड कर इस साझेदारी को तोड़ा.

इसके बाद एक बार फिर से जब वेस्टइंडीज के कप्तान डैरेन सैमी खतरनाक दिखने लगे तो उमेश ने सैमी को चलता कर दिया. सैमी को आउट करने के कुछ देर ही बाद ही देवेंद्र बिशू की गिल्लियां बिखेड़ कर उमेश ने कोलकाता में शानदार जीत दिला दी.

उमेश की ये कामयाबी इसलिए भी अहम है क्योंकि ये उनका सिर्फ दूसरा टेस्ट मैच है. इससे पहले कोटला में खेले गए अपने पहले टेस्ट मैच में उमेश ने दो विकेट लिए थे.

वेस्टइंडीज सीरीज के बाद भारतीय टीम को ऑस्ट्रेलिया दौरे पर जाना है और वहां पर उमेश की रफ्तार और स्विंग गेंदबाजी टीम इंडिया के लिए बेहद फायदेमंद हो सकती है.

बुधवार, 16 नवंबर 2011

'यदुकुल' की पताका फहराती अक्षिता (पाखी) : सबसे कम उम्र में 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार' का कीर्तिमान

(बाल दिवस, 14 नवम्बर पर विज्ञान भवन, नई दिल्ली में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में महिला और बाल विकास मंत्री माननीया कृष्णा तीरथ जी ने अक्षिता (पाखी) को राष्ट्रीय बाल पुरस्कार-2011 से पुरस्कृत किया. अक्षिता इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाली सबसे कम उम्र की प्रतिभा है.यही नहीं यह प्रथम अवसर था, जब किसी प्रतिभा को सरकारी स्तर पर हिंदी ब्लागिंग के लिए पुरस्कृत-सम्मानित किया गया)


आज के आधुनिक दौर में बच्चों का सृजनात्मक दायरा बढ़ रहा है. वे न सिर्फ देश के भविष्य हैं, बल्कि हमारे देश के विकास और समृद्धि के संवाहक भी. जीवन के हर क्षेत्र में वे अपनी प्रतिभा का डंका बजा रहे हैं. बेटों के साथ-साथ बेटियाँ भी जीवन की हर ऊँचाइयों को छू रही हैं. ऐसे में वर्ष 1996 से हर वर्ष शिक्षा, संस्कृति, कला, खेल-कूद तथा संगीत आदि के क्षेत्रों में उत्कृष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले बच्चों हेतु हेतु महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार' आरम्भ किये गए हैं। चार वर्ष से पन्द्रह वर्ष की आयु-वर्ग के बच्चे इस पुरस्कार को प्राप्त करने के पात्र हैं.

वर्ष 2011 के लिए 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार' 14 नवम्बर 2011 को विज्ञानं भवन, नई दिल्ली में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती कृष्णा तीरथ द्वारा प्रदान किये गए. विभिन्न राज्यों से चयनित कुल 27 बच्चों को ये पुरस्कार दिए गए, जिनमें मात्र 4 साल 8 माह की आयु में सबसे कम उम्र में पुरस्कार प्राप्त कर अक्षिता (पाखी) ने एक कीर्तिमान स्थापित किया. गौरतलब है कि इन 27 प्रतिभाओं में से 13 लडकियाँ चुनी गई हैं।
सम्प्रति अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भारतीय डाक सेवा के निदेशक और चर्चित लेखक, साहित्यकार, व ब्लागर कृष्ण कुमार यादव एवं लेखिका व ब्लागर आकांक्षा यादव की सुपुत्री और पोर्टब्लेयर में कारमेल सीनियर सेकेंडरी स्कूल में के. जी.- प्रथम की छात्रा अक्षिता (पाखी) को यह पुरस्कार कला और ब्लागिंग के क्षेत्र में उसकी विलक्षण उपलब्धि के लिए दिया गया है. इस अवसर पर जारी बुक आफ रिकार्ड्स के अनुसार- ''25 मार्च, 2007 को जन्मी अक्षिता में रचनात्मकता कूट-कूट कर भरी हुई है। ड्राइंग, संगीत, यात्रा इत्यादि से सम्बंधित उनकी गतिविधियाँ उनके ब्लाॅग ’पाखी की दुनिया (http://pakhi-akshita.blogspot.com/) पर उपलब्ध हैं, जो 24 जून, 2009 को आरंभ हुआ था। इस पर उन्हें अकल्पनीय प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं। 175 से अधिक ब्लाॅगर इससे जुडे़ हैं। इनके ब्लाॅग 70 देशों के 27000 से अधिक लोगों द्वारा देखे गए हैं। अक्षिता ने नई दिल्ली में अप्रैल, 2011 में हुए अंतर्राष्ट्रीय ब्लाॅगर सम्मेलन में 2010 का ’हिंदी साहित्य निकेतन परिकल्पना का सर्वोत्कृष्ट पुरस्कार’ भी जीता है।इतनी कम उम्र में अक्षिता के एक कलाकार एवं एक ब्लाॅगर के रूप में असाधारण प्रदर्शन ने उन्हें उत्कृष्ट उपलब्धि हेतु 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार, 2011' दिलाया।''इसके तहत अक्षिता को भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती कृष्णा तीरथ द्वारा 10,000 रूपये नकद राशि, एक मेडल और प्रमाण-पत्र प्रदान किया गया.

यही नहीं यह प्रथम अवसर था, जब किसी प्रतिभा को सरकारी स्तर पर हिंदी ब्लागिंग के लिए पुरस्कृत-सम्मानित किया गया. अक्षिता का ब्लॉग 'पाखी की दुनिया' (www.pakhi-akshita.blogspot.com/) हिंदी के चर्चित ब्लॉग में से है और इस ब्लॉग का सञ्चालन उनके माता-पिता द्वारा किया जाता है, पर इस पर जिस रूप में अक्षिता द्वारा बनाये चित्र, पेंटिंग्स, फोटोग्राफ और अक्षिता की बातों को प्रस्तुत किया जाता है, वह इस ब्लॉग को रोचक बनता है.

नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) को इस गौरवमयी उपलब्धि पर ढेरों प्यार और शुभाशीष व बधाइयाँ !!
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मंत्री जी भी अक्षिता (पाखी) के प्रति अपना प्यार और स्नेह न छुपा सकीं, कुछ चित्रमय झलकियाँ....














बुधवार, 9 नवंबर 2011

नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) यादव 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार' हेतु चयनित


प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती. तभी तो पाँच वर्षीया नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) को वर्ष 2011 हेतु राष्ट्रीय बाल पुरस्कार (National Child Award) के लिए चयनित किया गया है. सम्प्रति अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भारतीय डाक सेवा के निदेशक और चर्चित लेखक, साहित्यकार, व ब्लागर कृष्ण कुमार यादव एवं लेखिका व ब्लागर आकांक्षा यादव की सुपुत्री अक्षिता को यह पुरस्कार 'कला और ब्लागिंग' (Excellence in the Field of Art and Blogging) के क्षेत्र में शानदार उपलब्धि के लिए बाल दिवस, 14 नवम्बर 2011 को विज्ञानं भवन, नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती कृष्णा तीर्थ जी द्वारा प्रदान किया जायेगा. इसके तहत अक्षिता को 10,000 रूपये नकद राशि, एक मेडल और प्रमाण-पत्र दिया जायेगा.

यह प्रथम अवसर होगा, जब किसी प्रतिभा को सरकारी स्तर पर हिंदी ब्लागिंग के लिए पुरस्कृत-सम्मानित किया जायेगा. अक्षिता का ब्लॉग 'पाखी की दुनिया' (www.pakhi-akshita.blogspot.com/) हिंदी के चर्चित ब्लॉग में से है. फ़िलहाल अक्षिता पोर्टब्लेयर में कारमेल सीनियर सेकेंडरी स्कूल में के. जी.- प्रथम की छात्रा हैं और उनके इस ब्लॉग का सञ्चालन उनके माता-पिता द्वारा किया जाता है, पर इस पर जिस रूप में अक्षिता द्वारा बनाये चित्र, पेंटिंग्स, फोटोग्राफ और अक्षिता की बातों को प्रस्तुत किया जाता है, वह इस ब्लॉग को रोचक बनता है.

नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) को इस गौरवमयी उपलब्धि पर अनेकोंनेक शुभकामनायें और बधाइयाँ !!


शनिवार, 24 सितंबर 2011

'युवा-मन' की ब्लागिंग : अमित कुमार यादव

हिंदी-ब्लागिंग जगत में कुछेक नाम ऐसे हैं, जो बिना किसी शोर-शराबे के हिंदी साहित्य और हिंदी ब्लागिंग को समृद्ध करने में जुटे हुए हैं. इन्हीं में से एक नाम है- सामुदायिक ब्लॉग "युवा-मन" के माडरेटर अमित कुमार यादव का. संयोगवश आज उनका जन्मदिन भी है. अत: जन्म-दिन की बधाइयों के साथं आज की यह पोस्ट उन्हीं के व्यक्तित्व के बारे में-

अमित कुमार यादव : 24 सितम्बर, 1986 को तहबरपुर, आजमगढ़ (उ.प्र.) के एक प्रतिष्ठित परिवार में श्री राम शिव मूर्ति यादव एवं श्रीमती बिमला यादव के सुपुत्र-रूप में जन्म। आरंभिक शिक्षा बाल विद्या मंदिर, तहबरपुर-आजमगढ़, आदर्श जूनियर हाई स्कूल, तहबरपुर-आजमगढ़, राष्ट्रीय इंटर कालेज, तहबरपुर-आजमगढ़ एवं तत्पश्चात इलाहाबाद वि.वि. से 2007में स्नातक और इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU) से 2010 में लोक प्रशासन में एम.ए.। फ़िलहाल अध्ययन के क्रम में इलाहाबाद और प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी।

अध्ययन और लेखन अभिरुचियों में शामिल. सामाजिक-साहित्यिक-सामयिक विषयों पर लिखी पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं पढने का शगल, फिर वह चाहे प्रिंटेड हो या अंतर्जाल पर। तमाम पत्र-पत्रिकाओं , पुस्तकों/संकलनों एवं वेब-पत्रिकाओं, ई-पत्रिकाओं और ब्लॉग पर रचनाएँ प्रकाशित। वर्ष 2005 में 'आउटलुक साप्ताहिक पाठक मंच' का इलाहाबाद में गठन और इसकी गतिविधियों के माध्यम से सक्रिय। जुलाई-2006 में प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका 'आउटलुक' द्वारा एक प्रतियोगिता में पुरस्कृत, जो कि शैक्षणिक गतिविधियों से परे जीवन का प्रथम पुरस्कार। ब्लागिंग में भी सक्रियता और सामुदायिक ब्लॉग "युवा-मन" (http://yuva-jagat.blogspot.com) के माडरेटर। 21 दिसंबर 2008 को आरंभ इस ब्लॉग पर 250 के करीब पोस्ट प्रकाशित और 101 से ज्यादा फालोवर।
अपने बारे में स्वयं अमित कुमार एक जगह लिखते हैं, मूलत: आजमगढ़ का ...जी हाँ वही आजमगढ़ जिसकी पहचान राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिऔध", शिबली नोमानी, कैफी आज़मी जैसे लोगों से रही है। पर इस संक्रमण काल में इस पहचान के बारे में न ही पूछिये तो बेहतर है। आजकल आजमगढ़ की चर्चा दूसरे मुद्दों को लेकर है। फ़िलहाल हमने अभी तो जीवन के रंग देखने आरम्भ किये हैं, आगे-आगे देखिये होता क्या है। नौजवानी है सो जोश है, हौसला है और विचार हैं।

ई-मेलः amitky86@rediffmail.com
ब्लॉग : http://yuva-jagat.blogspot.com/ (युवा-मन)



(चित्र में : हिंदी भवन, दिल्ली में 'हिंदी साहित्य निकेतन', परिकल्पना डाट काम, और नुक्कड़ डाट काम द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मलेन में श्रेष्ठ नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) की तरफ से उत्तरांचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल 'निशंक', वरिष्ठ साहित्यकार डा. रामदरश मिश्र, डा. अशोक चक्रधर इत्यादि द्वारा सम्मान ग्रहण करते अमित कुमार यादव)

प्रस्तुति : रत्नेश कुमार मौर्य : 'शब्द-साहित्य'

बुधवार, 21 सितंबर 2011

अन्ना हजारे के प्रेरणास्रोत : 'यादव बाबा'

अन्ना हजारे के आन्दोलन के साथ ही 'यादव बाबा मंदिर' भी चर्चा में आ गया है. महाराष्ट्र के अहमद नगर स्थित रालेगण सिद्धि गाँव में आने वालों के लिए आकर्षण का मुख्य केंद्र यादव बाबा मंदिर है जो अन्ना हजारे का तब से निवास स्थान है जब वह 27 वर्ष पहले सेना में अपनी सेवा समाप्त करके इस गाँव में वापस लौटे थे।

इस मंदिर के पीछे भी एक कहानी है. यादव बाबा एक संत थे जो करीब सौ वर्ष पहले इंद्रयाणी नदी के किनारे स्थित आलंदी से रालेगण सिद्धि गांव आए थे। यादव बाबा ने यहाँ आकर समाधि ले ली थी। उनकी स्मृति में ही 'यादव बाबा मंदिर' बनाया गया था. अन्ना हजारे इसी मंदिर में रहकर प्रेरणा पाते हैं और समाज में अलख जगाने के लिए तत्पर हैं. वे स्वयं को ‘मंदिरात्ला अन्ना’ (वह व्यक्ति जो यादवबाबा मंदिर में रहता है), कहना पसंद करते हैं. फ़िलहाल यादव बाबा की स्मृति में बना यह मंदिर अब अन्ना की पहचान बन गया है. फ़िलहाल अन्ना को भले ही सुरक्षा कारणों से मंदिर की बजाय पद्मावती ट्रस्ट हास्टल में स्थानांतरित कर दिया गया हो, पर उनका मन अभी भी यादव बाबा मंदिर में ही बस्ता है. आखिर वहीँ से तो उन्हें प्रेरणा मिलती है !!

('यादव बाबा मंदिर' में रहने के कारण कुछेक लोगों ने अति-उत्साह में ब्लॉग, फेसबुक इत्यादि पर और यहाँ तक कि ई-मेल व SMS द्वारा यह जानकारी भेजी कि अन्ना हजारे यादव हैं, जो कि सही नहीं है. अन्ना हजारे यादव बाबा मंदिर में जरूर एक लम्बे समय से रह रहे हैं, पर वे यदुवंशी नहीं हैं. बाबा रामदेव जरुर यदुवंशी हैं !!)

सोमवार, 19 सितंबर 2011

डा. रमेश यादव द्वारा स्लोवाकिया में शोध-पत्र की प्रस्तुति

यदुकुल की प्रतिभाएं विदेशों में भी अपना डंका बजा कर सम्मान अर्जित कर रही हैं. बिहार में समस्तीपुर स्थित बलिराम भगत महाविद्यालय के प्रधानाचार्य डा. रमेश यादव ने हाल ही में स्लोवाकिया के स्मालिनिस कैसटल शहर में आयोजित 10 वीं इंटरनेशनल वर्कशाप आन पाजीट्रान एंड पाजीट्रोनियम केमेस्ट्री में अपना शोध पत्र लोकेशन आफ फेज बाउंड्रीज आफ लायट्रापिक लिक्विड क्राइस्टल इम्प्लाईग पाजीट्रान लाइफ टाइम स्पेक्ट्रोस्कापी प्रस्तुत किया. सत्ताइस देशों के 91 वें शोध प्रयोगों में भारत से मात्र पांच ही लोग चुने गये थे। गौरतलब है कि वर्ष 1991 में तीसरा सम्मेलन यू.एस.ए. में हुआ था। जिसमें डा. यादव के दो शोध पत्र स्वीकृत हुए थे. जिसमें उन्हें सम्मेलन के एक सत्र का अध्यक्ष भी बनाया गया था। इस कार्यक्रम में भागीदारी हेतु डिपार्टमेंट आफ सांइस एण्ड टेक्नोलाजी गवर्नमेंट आफ इंडिया तथा इंटर नेशनल एटामिक एजेंसी बियाना पी.पी.सी. ने डा. यादव को वित्तीय सहायता भी उपलब्ध कराई.

डा. रमेश यादव इसी प्रकार विज्ञानं और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति समर्पित होकर देश और समाज का नाम रोशन करते रहें. 'यदुकुल' की तरफ से अनंत शुभकामनायें !!

बुधवार, 31 अगस्त 2011

यदुकुल से राज्यपाल बनने वाले तीसरे व्यक्ति : रामनरेश यादव

यदुकुल से अभी तक नौ मुख्यमंत्री बन चुके हैं, पर राज्यपाल बनने का मौका सिर्फ़ तीन व्यक्तियों को मिला है. यादव राज्यपालों में गुजरात में महिपाल शास्त्री (2 मई 1990- 21 दिसंबर 1990) एवं हिमाचल प्रदेश व राजस्थान में बलिराम भगत (क्रमशः 11 फरवरी 1993-29 जून 1993 व 20 जून 1993-1 मई 1998) रहे हैं. हाल ही में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रहे 83 वर्षीय रामनरेश यादव को मध्य प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है। यदुकुल से राज्यपाल बनने वाले वह तीसरे व्यक्ति हैं.

आजमगढ़ के गांव आंधीपुर (अम्बारी) में एक साधारण किसान परिवार में 1 जुलाई 1928 को जन्मे रामनरेश यादव एक शिक्षक और एक अधिवक्ता के रूप में सामाजिक रूप से प्रगति करते हुए आगे चलकर एक ईमानदार और मूल्यों की राजनीति करने वाले आम आदमी के मददगार और एक दिग्गज राजनीतिज्ञ कहलाए। पेशे से वकील श्री यादव राजनारायण के विचारों से प्रभावित हो जनता पार्टी से जुड़े। 1977 में आजमगढ़ लोकसभा सीट से जीतकर वे छठवीं लोकसभा के सदस्य बने।इसी दरमियाँ वह 23 जून 1977 को उप्र के मुख्यमंत्री बने और इस पद पर 28 जून 1979 तक रहे। बाद में श्री यादव कांग्रेस पार्टी से जुड़े और संगठन में विभिन्न पदों पर भी रहे। सही मायनों में उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का कोई मुकाबला नही है उत्तर प्रदेश की राजनीति में दिग्गजों के बीच एक दिग्गज राजनीतिज्ञ का खिताब आज भी उनके पास है, बस फर्क इतना है कि आज के कई बड़े कहलाए जा रहे राजनेता माफियाओं, गुंडों और बदमाशों के नेता/सरगना कहे जाते हैं और रामनरेश यादव एक आम आदमी के और मूल्यों आधारित राजनीति के साथ चलने वाले नेता माने जाते हैं। भीड़ एवं सुरक्षा कर्मियों के घेरे में चौबीस घंटे रहने की महत्वकांक्षा उन पर कभी भी भारी नहीं पड़ सकी। जो लोग रामनरेश यादव के सामाजिक और राजनीतिक जीवन से परिचित हैं वे इन लाइनों से जरूर सहमत होंगे। उद्योगपतियों की तरह अरबपति या खरबपति राजनेता बनने की होड़ में शामिल राजनेताओं से यदि रामनरेश यादव की तुलना की जाए तो सभी जानते हैं कि उन्होंने अकूत दौलत को छोड़कर नैतिक मूल्यों को अपनी पूंजी बनाया है वे अन्य नेताओं की तरह धनसंपदा के पीछे नही भागे, यही कारण है कि अपने राजनीतिक जीवन में वे कई बार उपेक्षा के शिकार भी हुए हैं। कहने वाले कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास जो कद्दावर नेता हैं या जिन्हें वज़नदार नेता कहा जाता है उनमें रामनरेश यादव का पड़ला काफी भारी है।

रामनरेश यादव का समाजवादी आंदोलन और भारतीय राजनीति में हमेशा विशिष्ट स्थान रहा है। उन्होंने दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और गरीबों के दुख-दर्द को बहुत करीब और गहराई से समझा है, डॉ लोहिया की विचारधारा से प्रेरित होने के नाते उनमें किसी के लिए तनिक भी भेदभाव नहीं दिखाई देता है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी से निकले रामनरेश यादव प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक एवं विचारक आचार्य नरेंद्र देव के प्रभाव में रहे हैं। पंडित मदनमोहन मालवीय और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के भारतीय दर्शन से उनका सामाजिक जीवन काफी प्रभावित है।

फ़िलहाल देर से ही सही, राम नरेश यादव जी की योग्यता के मद्देनजर उन्हें मध्य प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य का राज्यपाल बनाया जाना एक सुखद संकेत है . यदुकुल की तरफ से इस उपलब्धि पर हार्दिक बधाइयाँ !!

सोमवार, 22 अगस्त 2011

श्री कृष्ण-जन्माष्टमी की बधाइयाँ



यदुवंशियों के पूर्वज भगवान श्री कृष्ण माने जाते हैं। सोलह कलाओं में माहिर भगवान श्री कृष्ण का आज जन्म-दिन है और सारा देश धूम-धाम से कृष्ण-जन्माष्टमी मना रहा है. भगवान श्री कृष्ण का पूरा जीवन ही मानवता को सन्देश देता है, प्रेरणा देता है. इस पर्व पर भगवान श्री कृष्ण का पुनीत स्मरण करते हुए समस्त धरावासियों के लिए सुख-समृधी-आरोग्य की कामना है. इस अनुपम पर्व कृष्ण-जन्माष्टमी पर आप सभी को शुभकामनायें और बधाइयाँ. भगवान श्री कृष्ण आपकी सभी मनोकामनाओं को पूरी करें !!

रविवार, 21 अगस्त 2011

सोलह कलाओं के अवतार :भगवान श्री कृष्ण

यद्‌यपि प्रत्‍येक पुराण में अनेक देवी देवताओं का वर्णन हुआ है तथा प्रत्‍येक पुराण में अनेक विषयों का समाहार है तथापि शिव पुराण, भविष्‍य पुराण, मार्कण्‍डेय पुराण, लिंग पुराण, वाराह पुराण, स्‍कन्‍द पुराण, कूर्म पुराण, वामन पुराण, ब्रह्माण्‍ड पुराण एवं मत्‍स्‍य पुराण आदि में ‘शिव' को; विष्‍णु पुराण, नारदीय पुराण, गरुड़ पुराण एवं भागवत पुराण आदि में ‘विष्‍णु' को; ब्रह्म पुराण एवं पद्‌म पुराण में ‘ब्रह्मा' को तथा ब्रह्म वैवर्त पुराण में ‘सूर्य' को अन्‍य देवताओं का स्रष्‍टा माना गया है।


पुराणों के गहन अध्‍ययन से स्‍पष्‍ट होता है कि पहले शिव की उपासना का विशेष महत्‍व था किन्‍तु तद्‌नन्‍तर विष्‍णु की भक्‍ति एवं उपासना का विकास एवं महत्‍व उत्‍तरोत्‍तर बढ़़ता गया। वासुदेव, नारायण, राम एवं कृष्‍ण आदि विष्‍णु के ही अवतार स्‍वीकार किए गए। 14 वीं शताब्‍दी तक आते आते राम एवं कृष्‍ण ही इष्‍टदेवों में सर्वाधिक मान्‍य एवं प्रतिष्‍ठित हो गए। अलग अलग कालखंडों में विष्‍णु, नारायण, वासुदेव, दामोदर, केशव, गोविन्‍द, हरि, सात्‍वत एवं कृष्‍ण एक ही शक्‍ति के वाचक भिन्‍न नामों के रूप में मान्‍य हुए। महाभारत के शान्‍ति पर्व में वर्णित है -

‘‘ मैं रुद्र नारायण स्‍वरूप ही हूँ। अखिल विश्‍व का आत्‍मा मैं हूँ और मेरा आत्‍मा रुद्र है। मैं पहले रुद्र की पूजा करता हूँ। आप अर्थात्‌ शरीर को ही नारा कहते हैं। सब प्राणियों का शरीर मेरा ‘अयन' अर्थात्‌ निवास स्‍थान है, इसलिए मुझे ‘नारायण' कहते हैं। सारा विश्‍व मुझमें स्‍थित है, इसी से मुझे ‘वासुदेव' कहते हैं। सारे विश्‍व को मैं व्‍याप लेता हूँ, इस कारण मुझे ‘विष्‍णु' कहते हैं। पृथ्‍वी, स्‍वर्ग एवं अंतरिक्ष सबकी चेतना का अन्‍तर्भाग मैं ही हूँ, इस कारण मुझे ‘दामोदर' कहते हैं। मेरे बाल सूर्य, चन्‍द्र एवं अग्‍नि की किरणें हैं, इस कारण मुझे ‘केशव' कहते हैं। गो अर्थात्‌ पृथ्‍वी को मैं ऊपर ले गया इसी से मुझे ‘गोविन्‍द' कहते हैं। यज्ञ का हविर्भाग मैं हरण करता हूँ, इस कारण मुझे ‘ हरि' कहते हैं। सत्‍वगुणी होने के कारण मुझे ‘सात्‍वत' कहते हैं। लोहे का काला फाल होकर मैं जमीन जोतता हूँ और मेरा रंग काला है, इस कारण मुझे ‘कृष्‍ण' कहते हैं। ''

भगवान कृष्‍ण के अनेकानेक रूप हैं। उनको सोलह कलाओं का अवतार माना जाता है। श्री कृष्‍ण के अतन्‍त प्रकार के रूप हैं। जो रूप सर्वातीत, अव्‍यक्‍त, निरंजन, नित्‍य आनन्‍दमय है उसका वर्णन करना सम्‍भव ही नहीं है क्‍योंकि अनन्‍त सौन्‍दर्य के चैतन्‍यमय आधार को भाषा में व्‍यक्‍त नहीं किया जा सकता। महाभारत, शास्‍त्रों एवं पुराणों में जो वर्णित है उस दृष्‍टि से श्री कृष्‍ण के तीन रूप प्रमुख हैं -

1 ़ महाभारत के कृष्‍ण
2 ़ गीता के कृष्‍ण
3 ़ भागवत तथा उसके आधार पर काव्‍य में वर्णित कृष्‍ण

महाभारत के कृष्‍ण
महाभारत में ‘नारद प्रसंग' में श्री कृष्‍ण के विश्‍व रूप का वर्णन मिलता है किन्‍तु यहाँ प्रधानता कृष्‍ण के मानवीय रूप की ही है। महाभारत में कृष्‍ण के कुशल राजनीति वेत्‍ता, कूटनीति विशारद एवं वीरत्‍व विधायक स्‍वरूप का निदर्शन है।

गीता के कृष्‍ण
गीता में श्री कृष्‍ण के विश्‍व व्‍यापी स्‍वरूप एवं परब्रह्म स्‍वरूप का प्रतिपादन है। श्री कृष्‍ण स्‍वयं अपना विश्‍व रूप अर्जुन को दिखाते हैं। गीता में श्री कृष्‍ण को प्रकृति और पुरुष से परे एक सर्व व्‍यापक, अव्‍यक्‍त एवं अमृत तत्‍व माना गया है और उसे परम पुरुष की संज्ञा से अभिहित किया गया है।

भागवत तथा उसके आधार पर काव्‍य में वर्णित कृष्‍ण
भागवत में यद्‌यपि अनेक अवतारों का वर्णन है किन्‍तु प्रधानता की दृष्‍टि से कृष्‍ण को पूर्ण ब्रह्म मानकर कृष्‍ण भक्‍ति की श्रेष्‍ठता प्रतिपादित है। भागवत में यद्‌यपि कृष्‍ण के 1 ़ असुर संहारक 2 ़ राजनीति वेत्‍ता एवं कूटनीति विशारद 3 ़ योगेश्‍वर 4 ़ परब्रह्म स्‍वरूप 5 ़ बालकृष्‍ण 6 ़ गोपी विहारी आदि सभी रूपों का वर्णन एवं विवेचन हुआ है किन्‍तु प्रधान रूप से कृष्‍ण के रसिकेश्‍वर स्‍वरूप की सरस अभिव्‍यंजना है। भागवत के पारायण से प्रेमाभिभूत भक्‍तों को गोकुल, ब्रज एवं वृन्‍दावन में विहार करने वाले नन्‍द नन्‍दन रसिक शिरोमणि गोपाल कृष्‍ण की लीलाओं से सहज रूप से परमानन्‍द की प्राप्‍ति होती है।

श्रीमद्‌भागवतकार जहाँ अलौकिकता एवं भक्‍ति से पुष्‍ट परमानन्‍द के रस से निमज्‍जित करता है वहीं परवर्ती आचार्यों एवं साहित्‍यकारों ने गोपीवल्‍लभ एवं राधावल्‍लभ कृष्‍ण के प्रेम की शास्‍त्रीय मीमांसा एवं काव्‍यात्‍मक अभिव्‍यंजना की है। सूरदास जैसे कवियों ने यशोदा माता के वात्‍सल्‍य का सहज एवं सरस चित्रांकन भी किया है।

रामानुजाचार्य ने भक्‍ति को नारायण, लक्ष्‍मी, भू और लीला तक ही सीमित रखा। निम्‍बार्काचार्य ने दक्षिण भारत से वृन्‍दावन में आकर उत्‍तर भारत में कृष्‍ण और सखियों द्वारा परिवेष्‍ठित राधा को महत्‍व दिया। निम्‍बार्क की भक्‍ति परम्‍परा में तथा विष्‍णु स्‍वामी से प्रभावित होकर उत्‍तर भारत में राधा कृष्‍ण की भक्‍ति का प्रचार प्रसार करने वाले आचार्यों में सर्वाधिक महत्‍व वल्‍लभाचार्य एवं चैतन्‍य महाप्रभु का है।

वल्‍लभाचार्य ने अपनी भक्‍ति में ‘प्रपत्‍ति'/‘शरणागति' को विशेष स्‍थान दिया। आपने गोपाल कृष्‍ण की लीलाओं को अलौकिकता प्रदान की। आपकी स्‍थापना है कि लीला पुरुषोत्‍तम श्रीकृष्‍ण राधिका के साथ जिस लोक में विहार करते हैं वह विष्‍णु और नारायण के बैकुंठ से भी ऊँचा है। इस स्‍थापना के कारण इन्‍होंने ‘गोलोक' को बैकुंठ से भी अधिक महत्‍व प्रदान किया।

चैतन्‍य महाप्रभु ने श्रीकृष्‍ण संकीर्तन के महत्‍व का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार यह चित्‍तरूपी दर्पण के मैल को मार्जित करता है, संसाररूपी महादावग्‍नि को शान्‍त करता है, प्राणियों को मंगलदायिनी कैरव चंद्रिका वितरित करता है। यह विद्‌यारूपी वधू का जीवन स्‍वरूप है। यह आनन्‍दस्‍वरूप को प्रतिदिन बढ़ाता है।

जयदेव, विद्‌यापति, चंडीदास एवं सूरदास जैसे अष्‍टछाप के कवियों ने गोपियों के कृष्‍णानुराग एवं ‘युगल उपासना' से प्रेरित राधा कृष्‍ण के उस प्रेम की सहज भावाभिव्‍यंजना की है जहाँ राधा श्‍याम के रंग में रंग जाती हैं तथा श्‍याम राधा के रंग में रंग जाते हैं।

कुछ विद्वानों नें श्रीमद्‌भागवत तथा उससे प्रेरित काव्‍य ग्रन्‍थों में वर्णित गोपियों के कृष्‍णानुराग एवं ‘युगल उपासना' से प्रेरित राधा कृष्‍ण के प्रेम प्रसंगों को भगवान श्रीकृष्‍ण के चरित पर लगाए गए असत्‍य, निर्मूल एवं निराधार लांछन माना है।

भक्‍ति परम्‍परा के परिप्रेक्ष्‍य में लीला प्रसंगों के आध्‍यात्‍मिक निहितार्थ हैं। लोक में जो जितना अश्‍लील एवं गर्हित है वह गोलोक में उतना ही पावन एवं मंगलकारी है। प्रत्‍येक लीला के आध्‍यात्‍मिक अर्थों की गहन एवं विशद व्‍याख्‍याएँ सुलभ हैं। उनकी पुनुरुक्‍ति की कोई प्रयोजनसिद्‌धता नहीं है। सम्‍प्रति हम केवल यह संकेत करना चाहते हैं कि लोक की दृष्‍टि से लोक में परकीया प्रेम गर्हित एवं अपराध है किन्‍तु भक्‍ति में गोपियाँ कुल मर्यादा का अतिक्रमण कर कामरूपा प्रीति करती हैं। लोक में जो श्रृंगार प्रेम है भक्‍ति में वह मधुर भक्‍ति रस है, माधुर्य भाव की भक्‍ति है। लौकिक प्रेम के जितने स्‍वरूप हो सकते हैं, वे सभी मधुर भक्‍ति में आ जाते हैं। कृष्‍ण में लीन होने के कारण गोपियों की कामरूपा प्रीति भी निष्‍काम है तथा सोलह हज़ार गोपियों के साथ ‘रास' रचाने वाले कृष्‍ण तत्‍वतः ‘योगेश्‍वर' है।

प्रेम के इस धरातल पर दैहिक सीमा से उद्‌भूत प्रेम उन सीमाओं का अतिक्रमण कर चेतना के स्‍तर पर प्रतिष्‍ठित हो जाता है। कृष्‍ण लीलाओं में प्रेम के जिस उन्‍मुक्‍त स्‍वरूप की यमुना तट और वृन्‍दावन के करील कुंजों में रासलीलाओं की धवल चॉदनी छिटकी है उसे आत्‍मसात करने के लिए भारत की तंत्र साधना को समझना होगा। ‘ हिन्‍दी निर्गुण भक्‍ति काव्‍य परम्‍परा' शीर्षक आलेख में लेखक ने विस्‍तार के साथ प्रतिपादित किया है कि भक्‍ति काल के साहित्‍य की रस-साधना में जो भक्‍ति है वह तत्‍वतः आत्‍मस्‍वरूपा शक्‍ति ही है। भक्‍ति की उपासना वास्‍तव में आत्‍मस्‍वरूपा शक्‍ति की ही उपासना है। सभी संतो का लक्ष्‍य भाव से प्रेम की ओर अग्रसर होना है। प्रेम का आविर्भाव होने पर ‘भाव' शांत हो जाता है। भक्‍त महाप्रेम में अपने स्‍वरूप में प्रतिष्‍ठित हो जाता है।

उदाहरण के लिए कबीर ने जीवन की साधना के बल पर जाना था कि ‘ मानस' यदि विकारों से मुक्‍त होकर ‘निर्मल' हो जाता है तो उसमें ‘अलख निरंजन' का प्रतिबिंब अनायास प्रतिफलित हो जाता है। ‘ प्‍यंजर प्रेम प्रकासिया, अन्‍तरि भया उजास'। हम यह कहने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहे हैं कि सूफियों ने भी भाव के केन्‍द्र को भौतिक न मानकर चिन्‍मय रूप में स्‍वीकार किया है तथा कृष्‍ण भक्‍तों की भाव साधना में भी भाव ही ‘महाभाव' में रूपान्‍तरित हो जाता है। कृष्‍ण भक्‍त कवियों के काव्‍य में भी राधा-भाव आत्‍म-शक्‍ति के अतिरिक्‍त अन्‍य नहीं है। अभी तक भक्‍ति काव्‍य को शंकराचार्य के अद्वैतवाद एवं वैष्‍णव मतवाद के आलोक में ही समझने का प्रयास होता रहा है। हमारी मान्‍यता है कि भक्‍ति काव्‍य को शांकर अद्वैतवाद के परिप्रेक्ष्‍य में मीमांसित करना उपयुक्‍त नहीं हैं।शांकर अद्वैतवाद में भक्‍ति को साधन के रूप में स्‍वीकार किया गया है, किन्‍तु उसे साध्‍य नहीं माना गया है। भक्‍तों ने भक्‍ति को साध्‍य माना है।

शांकर अद्वैतवाद में मुक्‍ति के प्रत्‍यक्ष साधन के रूप में ‘ज्ञान' को ग्रहण किया गया है। वहाँ मुक्‍ति के लिए भक्‍ति का ग्रहण अपरिहार्य नहीं है। वहाँ भक्‍ति के महत्‍व की सीमा प्रतिपादित है। वहाँ भक्‍ति का महत्‍व केवल इस दृष्‍टि से है कि वह अन्‍तःकरण के मालिन्‍य का प्रक्षालन करने में समर्थ सिद्ध होती है। भक्‍ति आत्‍म-साक्षात्‍कार नहीं करा सकती, वह केवल आत्‍म साक्षात्‍कार के लिए उचित भूमिका का निर्माण कर सकती है। भक्‍तों ने अपना चरम लक्ष्‍य भगवद्‌-दर्शन /प्रेम भक्‍ति माना है तथा भक्‍ति के ग्रहण को अपरिहार्य रूप में स्‍वीकार किया है। भक्‍तों की दृष्‍टि में भक्‍ति केवल अन्‍तःकरण के मालिन्‍य का प्रक्षालन करने वाली ‘वृत्‍ति' न होकर ‘आत्‍म शक्‍ति' ही है।

शांकर अद्वैतवाद में अद्वैत-ज्ञान की उपलब्‍धि के अनन्‍तर ‘भक्‍ति' की सत्‍ता अनावश्‍यक ही नहीं अपितु असम्‍भव है। भक्‍तों में अद्वैतज्ञान के बाद भी ‘ज्ञानोत्‍तरा भक्‍ति' की स्‍थिति है। इसका कारण हम बता चुके है कि भक्‍ति काल के साहित्‍य की रस-साधना में जो भक्‍ति है वह तत्‍वतः आत्‍मस्‍वरूपा शक्‍ति ही है। अंत में, मैं इस सम्‍बन्‍ध में यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि श्री कृष्‍ण के इन लीला प्रसंगों को इतिहास के प्रतिमानों के आधार पर नहीं परखा जा सकता। यह इतिहास का नहीं अपितु भक्‍ति का विषय है। इसी के साथ मैं यह भी जोर देकर कहना चाहता हूँ कि इसे मानवीय प्रेम की दृष्‍टि से भी जाँचा जा सकता है।

रसिक शिरोमणि गोपाल कृष्‍ण की लीलाओं से प्रेमासक्‍त भक्‍तों को जहाँ सहज परमानन्‍द प्राप्‍त होता है वहीं सहृदय पाठक को इनके पारायण से उमंग एवं उल्‍लास की प्रतीति होती है। श्री कृष्‍ण के इन लीला प्रसंगों में मानवीय प्रेम भी अपने सहज रूप में अभिव्‍यक्‍त है - इस बोध के साथ कि प्रेम में पुरुष और नारी के बीच विभाजक रेखायें खींचना अतार्किक एवं बेमानी हैं। इसी भारत में श्री कृष्‍ण के इन लीला प्रसंगों की काव्‍य रचना के पूर्व मिथुन युग्‍मों का शिल्‍पांकन न केवल खजुराहो अपितु कोणार्क, भुवनेश्‍वर एवं पुरी आदि अनेक देव मन्‍दिरों में हो चुका था। दाम्‍पत्‍य जीवन की युगल रूप में मैथुनी लौकिक चेष्‍टाओं एवं भावाद्रेकों को शरीर के सहज एवं अनिवार्य धर्म के रूप में स्‍वीकृति एवं मान्‍यता प्राप्‍त हो चुकी थी।

भारतीय तंत्र साधना की चरम परिणति एवं उत्‍कर्ष के काल में साधक सम्‍पूर्ण सृष्‍टि की आनन्‍दमयी विश्‍व वासना से प्रेरित, संवेदित एवं उल्‍लसित रूप में प्रतीति एवं अनुभूति कर चुका था । यह वह काल था जिसमें ‘ काम ' को हेय दृष्‍टि से नहीं देखा जाता था अपितु इसे जीवन के लिए उपादेय एवं श्रेयस्‍कर माना जाता था। समर्पण भाव से अभिभूत एकीभूत आलिंगन के फलीभूत पृथकता के द्वैत भाव को मेटकर तन - मन की एकचित्‍तता, मग्‍नता एवं एकात्‍मता में अस्‍तित्‍व के हेतु भोग से प्राप्‍त ‘ कामानन्‍द ' की स्‍थितियों को पाषाण खंडों में उत्‍कीर्ण करने वाले नर - नारी युग्‍मों के कलात्‍मक शिल्‍प वैभव को चरम मानसिक आनन्‍द प्राप्‍त करने का हेतु माना गया था। इस काल में इसी कारण इन्‍द्रिय दमन, ब्रह्मचर्य, नारी के प्रति तिरस्‍कार की भावना आदि बातें करना बेमानी थीं।

इस पृष्‍ठभूमि में श्री कृष्‍ण के लीला प्रसंगों को समझने का प्रयास होना चाहिए। इन लीलाओं का जीवन दर्शन यह है कि जीवन जीने के लिए है, पलायन करने के लिए नहीं है। वैराग्‍य भावना से जंगल में जाकर तपस्‍या तो की जा सकती है किन्‍तु उत्‍साह, उछाह, उमंग, उल्‍लास, कर्मण्‍यता, जीवंतता, प्रेरणा, रागात्‍मकता एवं सक्रियता के साथ गृहस्‍थ जीवन नहीं जिया जा सकता। गार्हस्‍थ जीवन का विधान है जिसमें पुरुष एवं स्‍त्री के बीच प्रजनन के उद्‌देश्‍य से मर्यादित काम का प्रेम में पर्यवसान होता है।

प्रेम प्रसंगों के गति पथ की सीमा शरीर पर आकर रुक नहीं जाती, शरीर के धरातल पर ही निःशेष नहीं हो जाती अपितु प्रेममूलक एर्न्‍द्रिय संवेगों की भावों में परिणति और भावों का विचारों में पर्यवसान तथा विचारों एवं प्रत्‍ययों का पुनः भावों एवं संवेगों में रूपान्‍तरण - यह चक्र चलता रहता है। काम ऐन्‍द्रिय सीमाओं से ऊपर उठकर अतीन्‍द्रिय उन्‍नयन की ओर उन्‍मुख होता है। प्रेम शरीर में जन्‍म लेता है लेकिन वह ऊर्ध्‍व गति धारण कर प्रेमी प्रेमिका के मन के आकाश की ओर उड्‌डीयमान होता है। इस पृष्‍ठभूमि में जब हम श्रीमद्‌भागवत तथा इससे अनुप्राणित परवर्ती कृष्‍ण काव्‍य का अनुशीलन करते हैं तो पाते हैं कि यह ऐसी जीवन धारा है जिसमें मानवीय प्रेम अपनी सम्‍पूर्णता में बिना किसी लाग लपेट के सहज भाव से अवगाहन करता है। प्रेम की इस सहज राग साधना में गृहस्‍थ जीवन एवं सांसारिक जीवन पूरे उल्‍लास के प्रमुदित होता है।

प्रोफेसर महावीर सरन जैन, सेवानिवृत्‍त निदेशक, केन्‍द्रीय हिन्‍दी संस्‍थान,
123- हरिएन्‍कलेव, चांदपुर रोड, बुलन्‍दशहर


साभार : रचनाकार

शनिवार, 13 अगस्त 2011

वृक्षों को रक्षा-सूत्र बाँधकर रक्षाबंधन मनाती : सुनीति यादव

आज रक्षाबंधन का पर्व है. यह सिर्फ भाई -बहन से जुड़ा नहीं बल्कि मानवता की रक्षा से भी जुड़ा हुआ है. हममें से तमाम लोग अपने स्तर पर मानवता को बचने हेतु पर्यावरण संरक्षण में जुटे हुए हैं। इन्हीं में से एक हैं- जीवन के समानांतर ही जल, जमीन और जंगल को देखने वाली ग्रीन गार्जियन सोसाइटी की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर सुनीति यादव। पिछले कई वर्षों से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कार्य कर रही एवं छत्तीसगढ़ में एक वन अधिकारी के0एस0 यादव की पत्नी सुनीति यादव सार्थक पहल करते हुए वृक्षों को राखी बाँधकर वृक्ष रक्षा-सूत्र कार्यक्रम का सफल संचालन कर नाम रोशन कर रही हैं। इस सराहनीय कार्य के लिए उन्हें ‘महाराणा उदय सिंह पर्यावरण पुरस्कार, स्त्री शक्ति पुरस्कार 2002, जी अस्तित्व अवार्ड इत्यादि पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। सुनीति यादव द्वारा वृक्ष रक्षा-सूत्र कार्यक्रम चलाये जाने के पीछे एक रोचक वाकया है। वर्ष 1992 में उनके पति जशपुर में डी0एफ0ओ0 थे। वहां प्राइवेट जमीन में पांच बहुत ही सुन्दर वृक्ष थे, जिन्हें भूस्वामी काटकर वहां दुकान बनाना चाहता था। उसने इन पेड़ों को काटने के लिए जिलाधिकारी को आवेदन कर रखा था। अपने पति द्वारा जब यह बात सुनीति यादव को पता चली तो उनके दिमाग में एक विचार कौंध गया। राखी पर्व पर कुछ महिलाओं के साथ जाकर उन्होंने उन पांच वृक्षों की विधिवत पूजा की और रक्षा सूत्र बांध दिया। देखा-देखी शाम तक आस-पास के लोगों द्वारा उन वृक्षों पर ढेर सारी राखियां बंध गई। फिर भूस्वामी को इन वृक्षों का काटने का इरादा ही छोड़ना पड़ा और गांव वाले इन पेड़ों को पांच भाई के रूप में मानने लगे। इससे उत्साहित होकर सुनीति यादव ने हर गांव में एक या दो विशिष्ट वृक्षों का चयन कराया तथा वर्ष 1993 में राखी के पर्व पर 17000 से अधिक लोगों ने 1340 वृक्षों को राखी बांधकर वनों की सुरक्षा का संकल्प लिया और इस प्रकार वृक्ष रक्षा सूत्र कार्यक्रम चल निकला। बस्तर के कोंडागांव इलाके में वृक्ष रक्षा सूत्र अभियान के तहत एक वृक्ष को नौ मीटर की राखी बांधी गई।

याद कीजिए 70 के दशक का चिपको आन्दोलन। सुनीति का मानना है कि चिपको आन्दोलन वन विभाग की नीतियों के विरूद्ध चलाया गया था जबकि वृक्ष रक्षा सूत्र वन विभाग एवं जनता का सामूहिक अभियान है, जिसे समाज के हर वर्ग का समर्थन प्राप्त है। यह सुनीति यादव की प्रतिबद्वता ही है कि वृक्ष रक्षा सूत्र कार्यक्रम अब देश के नौ राज्यों तक फैल चुका है। सुनीति इसे और भी व्यापक आयाम देते हुए ‘‘पौध प्रसाद कार्यक्रम‘‘ से जोड़ रही हैं। इसके लिए वे देश के सभी छोटे-बड़े धार्मिक प्रतिष्ठानों से सम्पर्क कर रही हैं कि वे भक्तों को प्रसाद के रूप में पौधे बांटे, ताकि वे उन पौधों को श्रद्धा के साथ लगायें, पालें-पोसें और बड़ा करें। यही नहीं आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण वृक्ष प्रजातियों, वनौषधियों के बीज पैकेट भी प्रसाद के रूप में बांटे जा रहे हैं। सुनीति यादव का मानना है कि वृक्ष भगवान के ही दूसरे रूप हैं। जब वह कहती हैं कि भगवान शिव की तरह वृक्ष सारा विषमयी कार्बन डाई आक्साइड पी जाते हैं और बदले में जीवन के लिए जरूरी आक्सीजन देते हैं, तो लोग दंग रह जाते हैं। सुनीति यादव का स्पष्ट मानना है कि-‘‘ईश्वर ने हम सभी को पृथ्वी पर किसी न किसी उद्देश्य के लिए भेजा है। आइए, उसके सपनों को साकार करें। धरती पर हरियाली को सुरक्षित रखकर हम जिन्दगी को और भी खूबसूरत बनाएंगे, कच्चे धागों से हरितिमा को बचाएंगे। ताज और मीनार हमारे किस काम के, जब पृथ्वी की धड़कन ही न बच सके। कल आने वाली पीढ़ी को हम क्या सौगात दे सकेंगे? आइए, रक्षाबंधन के इस पर्व पर हम भी ढेर सारे पौधे लगाएं और लगे हुए वृक्षों को रक्षा-सूत्र बंधकर उन्हें बचाएं।‘‘

आप सभी को रक्षा-बंधन पर्व पर ढेरों शुभकामनायें !!

साभार : आकांक्षा यादव : शब्द-शिखर


शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

साहित्यकार और पत्रकार : रघुविन्द्र यादव

भारत-जगत में तमाम यदुवंशी देश के विभिन्न अंचलों से हिंदी-साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं. उनमें से एक नाम है- रघुविन्द्र यादव. वे 'बाबूजी का भारत मित्र' पत्रिका के संपादक भी हैं. उनके जीवन-परिचय के लिए देखें-






(बड़े रूप में अच्छे से पढने के लिए फोटो पर चटका लगायें.)

बुधवार, 10 अगस्त 2011

प्रशासन और साहित्य के ध्वजवाहक : कृष्ण कुमार यादव

एक समय ऐसा भी था जब सभी क्षेत्रों-वर्गों में साहित्यकारों-रचनाकारों की बड़ी संख्या होती थी। वर्तमान समाज में दूरदर्शनी संस्कृति के चलते पठन-पाठन से दूर मात्र येनकेन धनोपार्जन मुख्य उद्देश्य बन चुका है। रायबरेली के दौलतपुर ग्राम में जन्मे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी झाँसी में रेलवे विभाग में सेवारत होते हुए भी अनवरत् साहित्यिक लेखन करते रहे और अन्ततः हिन्दी साहित्य में ‘द्विवेदी युग‘ नाम से मील के पत्थर बने। साहित्य की ऐतिहासिक पत्रिका ‘सरस्वती‘ का सम्पादन उन्होंने कानपुर के जूही मोहल्ले में किया।

इसी संदर्भ में दो घटनाओं की चर्चा बिना यह बात अपूर्ण रहेगी। हिन्दी साहित्य के भीष्म पितामह तथा तमाम साहित्यकारों के निर्माता पद्मविभूषण पं0 श्री नारायण चतुर्वेदी ने लंदन में प्राचीन इतिहास से एम0ए0 किया। उनकी पहली कृति-'महात्मा टाल्सटाय' सन् 1917 में प्रकाशित हुई। इनके पिता पं0 द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी ने भी विदेशी शासन काल में राजकीय सेवा में रहते हुए गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा भारतीयों के साथ चालाकी से किये गये योजनापूर्वक षडयन्त्र का यथार्थ चित्रण करते हुए एक ग्रंथ लिखा। नतीजन, अंग्रेजी शासन ने बौखला कर उन्हें माफी माँगने पर बाध्य किया पर ऐसे समय में उन्होंने इस्तीफा देकर अपनी देशभक्ति का प्रमाण दिया। उनके सुपुत्र जीवनपर्यन्त शिक्षा विभाग, सूचना विभाग तथा उपनिदेशक आकाशवाणी के उच्च प्रशासनिक पदों पर रहते हुए अनेकों पुस्तकों की रचना के अलावा अवकाश ग्रहण पश्चात भी लगभग चार दशकों तक विभिन्न प्रकार से हिन्दी की सेवा एवं ‘सरस्वती‘ का सम्पादन आदि सक्रिय रूप से करते रहे। उन्होंने अपने सेवाकाल में हिन्दी के अनेक शलाका-पुरूष निर्माण किये जो साहित्य की विभिन्न विधाओं के प्रकाश स्तम्भ बने। इसी प्रकार उच्चतर प्रशासनिक सेवा आई0सी0एस0 (अब परिवर्तित होकर आई0ए0एस0) उत्तीर्ण करके उत्तर प्रदेश कैडर के अन्तिम अधिकारी डा0 जे0डी0 शुक्ल प्रदेश के अनेक शीर्षस्थ पदों पर सफल प्रशासनिक अधिकारी होते हुए भी हिन्दी तथा तुलसीदास के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे। उनके ऊपर लेख, अन्त्याक्षरी तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलनों में वे सक्रिय होकर भाग लेते रहे।

हिन्दी साहित्य के प्रति दीवानगी विदेशियों में भी रही है। इटली के डा0 लुइजि पियो तैस्सीतोरी ने लोरेंस विश्वविद्यालय से सन् 1911 में सर्वप्रथम ‘तुलसी रामायण और वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन‘ पर शोध करके हिन्दी में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। वे इटली की सेना में भी सेवारत रहे। तत्पश्चात भारत में जीवनपर्यन्त रहकर इस विदेशी शंकराचार्य ने अनेक कृतियाँ लिखीं जिसमें ‘शंकराचार्य और रामानुजाचार्य का तुलसी पर प्रभाव‘ ‘वैसवाड़ी व्याकरण का तुलसी पर प्रभाव‘ प्रमुख हैं। यहाँ रहकर वह हिन्दी में बोलते और पत्र-व्यवहार भी भारत में हिन्दी में ही करते थे। डा0 तैस्सीतोरी पुरातत्व के प्रति भी लगाव होने से राजस्थान में ऊँट की सवारी करके जानकारी अर्जित करते रहे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि हिन्दी का यह विदेशी निष्पृह सेवक मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में ‘बीकानेर‘ में स्वर्ग सिधार गया। उसकी समाधि बीकानेर में तथा विश्व में सर्वप्रथम इनकी प्रतिमा की स्थापना ‘तुलसी उपवन‘ मोतीझील, कानपुर में करने इटली के सांस्कृतिक दूत प्रो0 फरनान्दो बरतोलनी आये। उन्होंने प्रतिमा स्थापना के समय आश्चर्यमिश्रित शब्दों में कहा कि हमारे देश में भी नहीं मालूम है कि हमारे देश का यह युवा इण्डिया की राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रथम शोधार्थी है। डा0 तैस्सीतोरी ने विश्वकवि तुलसीदास को वाल्मीकि रामायण का अनुवादक न मानते हुए सर्वप्रथम उनको स्वतन्त्र रचनाकार के रूप में सिद्ध किया।

तीस वर्षीय युवा अधिकारी श्री कृष्ण कुमार यादव पर लिखते समय उपरोक्त घटनाक्रम स्मरण हो आये। वर्तमान प्रशासनिक अधिकारियों से तद्विषयक चर्चा करने पर वह ‘समयाभाव‘ कहते हुए साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक कार्यों के प्रति अभिरुचि नहीं रखते हैं। जिन कंधों के ऊपर राष्ट्र का नेतृत्व टिका हुआ है, यदि वे ही समयाभाव की आड़ में साहित्य-संस्कृति की अपनी सुदृढ़ परम्पराओं की उपेक्षा करने लगें तो राष्ट्र की आगामी पीढ़ियाँ भला उनसे क्या सबक लेंगीं? पर सौभाग्यवश अभी भी प्रशासनिक व्यवस्था में कुछ ऐसे अधिकारी हैं जो अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक जिम्मेदारियों को भी बखूबी समझते हैं और इसे अपने दायित्वों का ही एक अंग मानकर क्रियाशील हैं।




ऐसे अधिकारियों के लिए पद की जिम्मेदारियां सिर्फ कुर्सी से नहीं जुड़ी हुई हैं बल्कि वे इसे व्यापक आयामों, मानवीय संवेदनाओं और अनुभूतियों के साथ जोड़कर देखते हैं। भारतीय डाक सेवा के अधिकारी श्री कृष्ण कुमार यादव ऐसे ही अधिकारियों में से हैं। प्रशासन में बैठकर भी आम आदमी के मर्म और उसके जीवन की जद्दोजहद को जिस गहराई से श्री यादव छूते हैं, वह उन्हें अन्य अधिकारियों से अलग करती है। जीवन तो सभी लोग जीते हैं, पर सार्थक जीवन कम ही लोग जीते हैं। नई स्फूर्ति, नई ऊर्जा, नई शक्ति से आच्छादित श्री यादव प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन की इस उक्ति के सार्थक उदाहरण हैं कि-‘‘सिर्फ सफल होने की कोशिश न करें, बल्कि मूल्य-आधारित जीवन जीने वाला मनुष्य बनने की कोशिश कीजिए।‘‘ आपके सम्बन्ध में काव्य-मर्मज्ञ एवं पद्मभूषण श्री गोपाल दास ‘नीरज‘ जी के शब्द गौर करने लायक हैं- ‘‘कृष्ण कुमार यादव यद्यपि एक उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारी हैं, किन्तु फिर भी उनके भीतर जो एक सहज कवि है वह उन्हें एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में प्रस्तुत करने के लिए निरन्तर बेचैन रहता है। उनमें बुद्धि और हृदय का एक अपूर्व सन्तुलन है। वो व्यक्तिनिष्ठ नहीं समाजनिष्ठ साहित्यकार हैं जो वर्तमान परिवेश की विद्रूपताओं, विसंगतियों, षडयन्त्रों और पाखण्डों का बड़ी मार्मिकता के साथ उद्घाटन करते हैं।’’

प्रशासन के साथ साहित्य में अभिरुचि रखने वाले श्री कृष्ण कुमार युवा पीढ़ी के अत्यन्त सक्रिय रचनाकार हैं। पदीय दायित्वों का निर्वाहन करते हुए और लोगों से नियमित सम्पर्क-संवाद स्थापित करते हुए जो बिंब उनके मन-मस्तिष्क पर बनते हैं, उनकी कलात्मक अभिव्यंजना उनकी साहित्यिक रचनाओं में स्पष्ट देखी जा सकती है। इन विलक्षण रचनाओं के गढ़ने में उनकी संवेदनशीलता, सतत् काव्य-साधना, गहन अध्ययन, चिंतन-अवचिंतन, अवलोकन, अनुभूतियों आदि की महत्वपूर्ण भूमिका है। बकौल प्रो0 सूर्य प्रसाद दीक्षित- ’’कृष्ण कुमार यादव न किसी वैचारिक आग्रह से प्रतिबद्ध हैं और न किसी कलात्मक फैशन से ग्रस्त हैं। उनका आग्रह है- सहज स्वाभाविक जीवन के प्रति और रचनाओं में उसी के यथावत अकृत्रिम उद्घाटन के प्रति।’’ यही कारण है कि मुख्यधारा के साथ-साथ बाल साहित्य से भी रचनात्मक जुड़ाव रखने वाले श्री यादव की अल्प समय में ही दो निबन्ध संग्रह ’’अभिव्यक्तियों के बहाने’’ व ’’अनुभूतियाँ और विमर्श’’, एक काव्य संग्रह ’’अभिलाषा’’, 1857-1947 की क्रान्ति गाथा को सहेजती ’’क्रान्ति-यज्ञ’’ एवं भारतीय डाक के इतिहास को कालानुक्रम में समेटती ’’इण्डिया पोस्ट: 150 ग्लोरियस ईयर्स’’ सहित कुल पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अपने व्यस्ततम शासकीय कार्यों में साहित्य या रचना-सृजन को बाधक नहीं मानने वाले श्री यादव की रचनाएँ देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और सूचना-संजाल के इस दौर में तमाम अन्तर्जाल पत्रिकाओं- सृजनगाथा, अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट इत्यादि में नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं। श्री यादव स्वयं अंतर्जाल पर 'शब्द सृजन की ओर' और 'डाकिया डाक लाया' नामक ब्लॉगों का सञ्चालन भी करते हैं. आकाशवाणी लखनऊ, कानपुर और पोर्टब्लेयर से कविताओं, वार्ता, परिचर्चा इत्यादि के प्रसारण के साथ-साथ 50 से अधिक प्रतिष्ठित संकलनों में विभिन्न विधाओं में उनकी सशक्त रचनाधर्मिता के दर्शन होते हैं। प्रशासन के साथ-साथ उनकी विलक्षण रचनाधर्मिता के मद्देनजर कानपुर से प्रकाशित ’’बाल साहित्य समीक्षा’’ (स0 : डा0 राष्ट्रबंधु) एवं इलाहाबाद से प्रकाशित ’’गुफ्तगू'' पत्रिकाओं ने उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक जारी किये हैं। यही नहीं उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को समेटती और एक साहित्यिक व्यक्तित्व के रूप में उनके योगदान को परिलक्षित करती , दुर्गाचरण मिश्र द्वारा सम्पादित पुस्तक ’’बढ़ते चरण शिखर की ओर: कृष्ण कुमार यादव’’ भी प्रकाशित हो चुकी है.

निश्चिततः ऐसे में उनकी रचनाधर्मिता ऐतिहासिक महत्व की अधिकारी है। प्रशासनिक पद पर रहने के कारण वे जीवन के यथार्थ को बहुत बारीकी से महसूस करते हैं। उनकी कविताओं में प्रकृति चित्रण और जीवन के श्रृंगार के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक सरोकारों से भरपूर जीवन का यथार्थ और भी मन को गुदगुदाता है। प्रसिद्ध साहित्यकार डा0 रामदरश मिश्र लिखते हैं कि- ’’कृष्ण कुमार की कविताएं सहज हैं, पारदर्शी हैं, अपने समय के सवालों और विसंगतियों से रूबरू हैं। इनकी संवेदनशीलता अपने भीतर से एक मूल्यवादी स्वर उभारती है।’’ वस्तुतः एक प्रतिभासम्पन्न, उदीयमान् नवयुवक रचनाकार में भावों की जो मादकता, मोहकता, आशा और महत्वाकांक्षा की जो उत्तेजना एवं कल्पना की जो आकाशव्यापी उड़ान होती है, उससे कृष्ण कुमार जी का व्यक्तित्व-कृतित्व ओत-प्रोत है। ‘क्लब कल्चर‘ एवं अपसंस्कृति के इस दौर में एक युवा प्रशासनिक अधिकारी की हिन्दी-साहित्य के प्रति ऐसी अटूट निष्ठा व समर्पण शुभ एवं स्वागत योग्य है। ऐसा अनुभव होता है कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन के जनपद आज़मगढ़ की माटी का प्रभाव श्री यादव पर पड़ा है।

श्री कृष्ण कुमार यादव अपनी कर्तव्यनिष्ठा में ऊपर से जितने कठोर दिखाई पड़ते हैं, वह अन्तर्मन से उतने ही कवि-हृदय के कोमल व्यक्तित्व वाले हैं। स्पष्ट सोच, पारखी दृष्टिकोण एवम् दृढ़ इच्छाशक्ति से भरपूर श्री यादव जी की जीवन संगिनी श्रीमती आकांक्षा यादव भी संस्कृत विषय की प्रखर प्रवक्ता एवं विदुषी कवयित्री व लेखिका हैं, सो सोने में सुहागा की लोकोक्ति स्वतः साकार हो उठती है। सुविख्यात समालोचक श्री सेवक वात्स्यायन इस साहित्यकार दम्पत्ति को पारस्परिक सम्पूर्णता की उदाहृति प्रस्तुत करने वाला मानते हुए लिखते हैं - ’’जैसे पंडितराज जगन्नाथ की जीवन-संगिनी अवन्ति-सुन्दरी के बारे में कहा जाता है कि वह पंडितराज से अधिक योग्यता रखने वाली थीं, उसी प्रकार श्रीमती आकांक्षा और श्री कृष्ण कुमार यादव का युग्म ऐसा है जिसमें अपने-अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व के कारण यह कहना कठिन होगा कि इन दोनों में कौन दूसरा एक से अधिक अग्रणी है।’’

श्री यादव की कृतियों पर समीक्षक ही अपने विचार व्यक्त करने की क्षमता रखते हैं पर इतने कम समय में उन्होंने साहित्यिक एवं प्रशासनिक रूप में अपनी एक अलग पहचान बनाई है, जो विरले ही देखने को मिलती हैं। प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती, अस्तु प्रशासकीय व्यस्तताओं के मध्य विराम समय में उनकी सरस्वती की लेखनी सतत् चलती रहती है। यही नहीं, वह दूसरों को भी उत्साहित करने में सक्रिय योगदान देते रहते हैं। उनकी पुस्तक ’’अनुभूतियाँ और विमर्श’’ के कानपुर में विमोचन के दौरान पद्मश्री गिरिराज किशोर जी के शब्द याद आते हैं- ’’आज जब हर लेखक पुस्तक के माध्यम से सिर्फ आपने बारे में बताना चाहता है, ऐसे में कृष्ण कुमार जी की पुस्तक में तमाम साहित्यकारों व मनीषियों के बारे में पढ़कर सुकून मिलता है और इस प्रकार युवा पीढ़ी को भी इनसे जोड़ने का प्रयास किया गया है।’’ मुझे ऐसा अनुभव होता है कि ऐसे लगनशील व कर्मठ व्यक्तित्व वाले श्री कृष्ण कुमार यादव पर साहित्य मनीषी कविवर डा0 अम्बा प्रसाद ‘सुमन’ की पंक्तियाँ उनके कृतित्व की सार्थकता को उजागर करती हैं-चरित्र की ध्वनि शब्द से ऊँची होती है/कल्पना कर्म से सदा नीचे होती है/प्रेम जिहृI में नहीं नेत्रों में है/नेत्रों की वाणी की व्याख्या कठिन है/मौन रूप प्रेम की परिभाषा कठिन है /चरित्र करने में है कहने में नहीं/चरित्र की ध्वनि शब्द से ऊँची होती है।

डा0 बद्री नारायण तिवारी, संयोजक- राष्ट्रभाषा प्रचार समिति-वर्धा, उत्तर प्रदेश
पूर्व अध्यक्ष-उ0प्र0 हिन्दी साहित्य सम्मेलन, संयोजक-मानस संगम
38/24, शिवाला, कानपुर (उ0प्र0)-208001

(कृष्ण कुमार यादव के जन्मदिवस,10 अगस्त पर श्री बद्री नारायण तिवारी जी का यह लेख साभार प्रकाशित. चित्र में कृष्ण कुमार और तिवारी जी साथ दिख रहे हैं. )